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अयोध्या एवं राम जन्मभूमि का इतिहास

अयोध्या एवं राम जन्मभूमि का इतिहास -1

श्री रामजन्मभूमि का ईसापूर्व इतिहास..


त्रेता युग के चतुर्थ चरण में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचंद्र जी अयोध्या की इस पावन भूमि पर अवतरित हुए थे। श्री राम चन्द्र जी के जन्म के समय यह स्थान बहुत ही विराट,सुवर्ण एवं सभी प्रकार की सुख सुविधाओ से संपन्न एक राजमहल के रूप में था। महर्षि वाल्मीकि ने भी रामायण मे जन्मभूमि की शोभा एवं महत्ता की तुलना दूसरे इंद्रलोक से की है ॥धन धान्य रत्नो से भरी हुई अयोध्या नगरी की अतुलनीय छटा एवं गगनचुम्बी इमारतो के अयोध्या नगरी में होने का वर्णन भी वाल्मीकि रामायण में मिलता है ॥
भगवान के श्री राम के स्वर्ग गमन के पश्चात अयोध्या तो पहले जैसी नहीं रही मगर जन्मभूमि सुरक्षित रही। भगवान श्री राम के पुत्र कुश ने एक बार पुनः राजधानी अयोध्या का पुनर्निर्माण कराया और सूर्यवंश की अगली 44 पीढ़ियों तक इसकी अस्तित्व आखिरी राजा महाराजा वृहद्व्ल तक अपने चरम पर रहा॥ कौशालराज वृहद्वल की मृत्यु महाभारत युद्ध में अभिमन्यु के हाथो हुई ।  महाभारत के युद्ध के बाद अयोध्या उजड़ सी गयी मगर श्री रामजन्मभूमि का अस्तित्व प्रभुकृपा से बना रहा ॥

महाराजा विक्रमादित्य द्वारा पुनर्निर्माण:


ईसा के लगभग १०० वर्ष पूर्व उज्जैन के राजा विक्रमादित्य आखेट  करते करते अयोध्या चले आये। थकान होने के कारण अयोध्या में सरयू नदी के किनारे एक आम के बृक्ष के नीचे वो आराम करने लगे। उसी समय दैवीय प्रेरणा से तीर्थराज प्रयाग से उनकी मुलाकात हुई और तीर्थराज प्रयाग ने सम्राट विक्रमादित्य को अयोध्या और सरयू की महत्ता के बारे में बताया और उस समय तक नष्ट सी हो गयी श्री राम जन्मभूमि के उद्धार के लिए कहा॥
महाराजा विक्रमादित्य ने कहा की महाराज अयोध्या तो उजड़ गयी है,मिटटी के टीले और स्तूप ही यहाँ अवशेषों के रूप में हैं, फिर मुझे ज्ञान कैसे होगा की अयोध्या नगरी कहा से शुरू होती है,क्षेत्रफल  कितना  होगा और किस स्थान पर कौन सा तीर्थ है  
इस संशय का निवारण करते हुए तीर्थराज प्रयाग ने कहा की यहाँ से आधे योजन की दूरी पर मणिपर्वत है,उसके ठीक दक्षिण चौथाई योजन के अर्धभाग में गवाक्ष कुण्ड है उस गवाक्ष कुण्ड से पश्चिम तट से  सटा हुआ एक रामनामी बृक्ष है,यह वृक्ष अयोध्या की परिधि नापने के लिए ब्रम्हा जी ने लगाया था।  सैकड़ो वर्षों से यह वृक्ष उपस्थित है वहा।  उसी वृक्ष के पश्चिम ठीक एक मिल की दूरी पर एक मणिपर्वत है। मणिपर्वत के पश्चिम सटा हुआ गणेशकुण्ड  नाम का एक सरोवर है,उसके ऊपर शेष भगवान का एक मंदिर बना हुआ है  (ज्ञातव्य है की अब इस स्थान पर अयोध्या में शीश पैगम्बर नाम की एक मस्जिद है जिसे सन १६७५ में औरंगजेब ने शेष भगवान के मंदिर को गिरा कर बनवाया था ). शेष भगवान के मंदिर से ५०० धनुष पर ठीक वायव्य कोण पर भगवान श्री राम की जन्मभूमि है॥
रामनामी वृक्ष(यह वृक्ष अब सूखकर गिर चुका है) के एक मील के इर्द गिर्द एक नवप्रसूता गाय को ले कर घुमाओ जिस जगह वह गाय गोबर कर दे,वह स्थल मणिपर्वत है फिर वहा से ५०० धनुष नापकर उसी ओर गाय  को ले जा के घुमाओ जहाँ उसके स्तनों से दूध की धारा गिरने लगे बस समझ लेना भगवान की जन्मभूमि वही है रामजन्मभूमि को सन्दर्भ मान के पुरानो में वर्णित क्रम के अनुसार तुम्हे समस्त तीर्थो का पता लग जायेगा,ऐसा करने से तुम श्री राम की कृपा के अधिकारी बनोगे यह कहकर तीर्थराज प्रयाग अदृश्य हो गए॥
रामनवमी के दिन पूर्ववर्णित क्रम में सम्राट विक्रमादित्य ने सर्वत्र नवप्रसूता गाय को घुमाया जन्म भूमि पर उसके स्तनों से अपने आप दूध गिरने लगा उस स्थान पर महाराजा विक्रमादित्य ने श्री राम जन्मभूमि के भव्य मंदिर का निर्माण करा दिया॥
ईसा की ग्यारहवी शताब्दी में कन्नोज नरेश जयचंद आया तो उसने मंदिर पर सम्राट विक्रमादित्य के प्रशस्ति को उखाड़कर अपना नाम लिखवा दिया। पानीपत के युद्ध के बाद जयचंद का भी अंत हो गया फिर भारतवर्ष पर लुटेरे मुसलमानों का आक्रमण शुरू हो गया। मुसलमान आक्रमणकारियों ने जी भर के जन्मभूमि को लूटा और पुजारियों की हत्या भी कर दी,मगर मंदिर से मुर्तिया हटाने और मंदिर को तोड़ने में वे सफल न हो सके॥ विभिन्न आक्रमणों के बाद भी सभी झंझावतो को झेलते हुए श्री राम की जन्मभूमि अयोध्या १४वीं शताब्दी तक बची रही॥ चौदहवी शताब्दी में हिन्दुस्थान पर मुगलों का अधिकार हो गया और उसके बाद ही  रामजन्मभूमि एवं अयोध्या को पूर्णरूपेण इस्लामिक साँचे मे ढालने एवं सनातन धर्म के प्रतीक स्तंभो को जबरिया इस्लामिक ढांचे मे बदलने के कुत्सित प्रयास शुरू हो गए॥

बाबर  के आक्रमण के बाद अयोध्या में मस्जिद निर्माण कैसे हुआ,इस्लामिक आतताइयों ने कैसे अयोध्या का स्वरूप बदलने की कोशिश की और उसके बाद कई सौ सालो तक जन्मभूमि को मुक्त करने के लिए हिन्दुओं द्वारा किये गए युद्धों एवं बलिदानों एवं उन वीरों का वर्णन अगली पोस्ट में॥ 

 अयोध्या एवं राम जन्मभूमि का इतिहास -2

 


पिछली पोस्ट में आप ने पढ़ा की किस प्रकार महाराजा विक्रमादित्य ने श्री राम जन्मभूमि का पुनर्निर्माण तीर्थराज प्रयाग की आज्ञा अनुसार कराया  चौदहवी शताब्दी तक विभिन्न आक्रमणों के बाद भी राम जन्मभूमि  का अस्तित्व बचा रहा। हालाँकि आठवी शताब्दी से मुश्लिम लुटेरों का हिन्दुस्थान पर आक्रमण शुरू हो गया था मगर संगठित हिन्दू प्रतिरोध के कारण वो हिन्दुस्थान पर अधिकार नहीं कर पाए। १४ वी शताब्दी तक हिन्दुओं की शक्ति क्षय होने लगा और मुगलों का हिन्दुस्थान पर प्रभुत्त्व स्थापित होने लगा,हिन्दुस्थान मुग़ल आतताइयों के अधीन आया तो प्रथम शासक बाबर हुआ। बाबर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ और उस समय जन्मभूमि महात्मा श्यामनन्द जी महाराज  के अधिकार क्षेत्र में थी। महात्मा श्यामनन्द उच्च कोटि के ख्यातिप्राप्त सिद्ध महात्मा थे। इनका प्रताप चारो और फैला था और हिन्दुधर्म के मूल सिधान्तो के अनुसार  महात्मा श्यामनन्द किसी भी प्रकार का भेदभाव किसी से नहीं रखते थे। यहाँ एक बार ध्यान देने योग्य बात ये है की जब जब हिन्दुधर्म के लोगो ने सहृदयता दिखाई है उसका खामियाजा आने वाले समय में पीढ़ियों को भुगतना पड़ा
महात्मा श्यामनन्द की ख्याति सुनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा आशिकान अयोध्या आये और महात्मा श्री
 महात्मा श्यामनन्द के साधक शिष्य हो गए। महात्मा जी के सानिध्य में ख्वाजा कजल अब्बास मूसा को रामजन्मभूमि का इतिहास एवं प्रभाव विदित हुआ और उनकी श्रद्धा जन्मभूमि में हो गयी। ख्वाजा कजल अब्बास मूसा ने महात्मा श्यामनन्द से आग्रह किया की उन्हें वो अपने जैसी दिव्य सिद्धियों को प्राप्त करने का मार्ग बताएं। महात्मा श्यामनन्द ने ख्वाजा कजल अब्बास मूसा से कहा की हिन्दू धर्म के अनुसार सिद्धि प्राप्ति करने के लिए तुम्हे योग की शिक्षा दी जाएगी, मगर वो तुम सिद्धि के स्तर तक नहीं कर पाओगे क्यूकी हिन्दुओं जैसी पवित्रता तुम नहीं रख पाओगे। अतः  महात्मा श्यामनन्द  ने ख्वाजा कजल अब्बास मूसा को रास्ता सुझाते हुए कहा की “तुम इस्लाम धर्म की शरियत के अनुसार ही अपने ही मन्त्र "लाइलाह इल्लिलाह" का नियमपूर्वक अनुष्ठान करो”। इस प्रकार मैं उन महान  सिद्धियों को प्राप्त करने में तुम्हारी सहायता करूँगा। महात्मा श्यामनन्द के सानिध्य में बताये गए मार्ग से ख्वाजा  कजल अब्बास मूसा ने सिद्धियाँ प्राप्त कर ली और उनका नाम भी  महात्मा श्यामनन्द के ख्यातिप्राप्त शिष्यों में लिया जाने लगा। ये सुनकर जलालशाह नाम का एक फकीर भी  महात्मा श्यामनन्द  के सानिध्य में आया और सिद्धि प्राप्त करने के लिए ख्वाजा की तरह अनुष्ठान करने लगा।
जलालशाह एक कट्टर मुसलमान था, और उसको एक ही सनक थी, हर जगह इस्लाम का आधिपत्य साबित करना। जब जन्मभूमि की महिमा और प्रभाव को उसने देखा तो उसने अपनी लुटेरी मानसिकता दिखाते हुए उसने उस स्थान को खुर्द मक्का या छोटा मक्का साबित करने या यूँ कह लें उस रूप में स्थापित करने की कुत्सित  आकांक्षा जाग उठी। जलालशाह ने  ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के साथ मिलकर ये विचार किया की यदि इस मदिर को तोड़ कर मस्जिद बनवा दी जाये तो महात्मा श्यामनन्द की जगह हमे मिल जाएगी और चूकी अयोध्या की जन्मभूमि हिन्दुस्थान में हिन्दू आस्था का प्रतीक है तो यदि यहाँ जन्मभूमि पर मस्जिद बन गया तो इस्लाम का परचम हिन्दुस्थान में स्थायी हो जायेगा। धीरे धीरे जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा इस साजिश को अंजाम देने की तैयारियों में जुट गए ।

अब विवेचना के इस बिंदु पर उस समय के राजनैतिक परिदृश्य पर नजर डालना जरुरी हो जाता है। हमारे इतिहास में एक गलत बात बताई जाती है की मुगलों ने पुरे भारत पर राज्य किया
, हाँ उन्होंने एक बड़े हिस्से को जीता था मगर सर्वदा उन्हें हिन्दू वीरो से प्रतिरोध करना पड़ा और कुछ जयचंदों के कारण उनकी जड़े गहरी हुई। उस समय उदयपुर के सिंहासन पर महाराणा संग्रामसिंह राज्य कर रहे थे जिनकी राजधानी चित्तौड़गढ़ थी।
संग्रामसिंह को राणासाँगा के नाम से भी जाना जाता है । आगरे के पास फतेहपुर सीकरी में बाबर और राणासाँगा का भीषण युद्ध हुआ जिसमे बाबर घायल हो कर भाग निकला और अयोध्या आ के जलालशाह की शरण ली(ज्ञात रहे तब तक जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के सिद्धि की धाक आस पर के क्षेत्रों में  महात्मा श्यामनन्द के सिद्धि प्राप्त साधकों  के रूप में जम चूकी थी)। इसी समय जलालशाह ने बाबर पर अपना प्रभाव किया और बड़ी सेना ले कर युद्ध करने का आशीर्वाद दिया।बाबर ने   राणासाँगा की ३० हजार सैनिको की सेना के सामने अपने ६ लाख सैनिको की सेना के साथ धावा बोल दिया और इस युद्ध में   राणासाँगा की हार हुई । युद्ध के बाद   राणासाँगा के ६०० और बाबर की सेना के ९०,००० सैनिक जीवित बचे ।
इस युद्ध में विजय पा के बाबर फिर अयोध्या आया और जलालशाह से मिला,जलालशाह ने बाबर को अपनीं सिद्धी का भय और इस्लाम के आधिपत्य की बात बताकर अपनी योजना बताई और  ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के समर्थन की बात कही । बाबर ने अपने वजीर  मीरबाँकी खा को ये काम पूरा करने का आदेश दिया और खुद दिल्ली चला गया। अब जलालशाह ने अयोध्या को खुर्द मक्का के रूप में स्थापित करने के अपने कुत्सित प्रयासों को आगे बढ़ाना शुरू किया। सर्वप्रथम प्राचीन इस्लामिक  ढर्रे की लम्बी लम्बी  कब्रों को बनवाया गया,दूर दूर से मुसलमानों के शव अयोध्या लाये जाने लगे।  पुरे भारतवर्ष में ये बात फ़ैल गयी और भगवान राम की अयोध्या को  खुर्द मक्का बनाने के लिए कब्रों से पाट दिया गया॥
अब भी उनमे से कुछ अयोध्या में अयोध्या नरेश के महल के निकट कब्रों या मजारो के रूप में मिल जाएँगी।




अब जलालशाह ने  मीरबाँकी खां के माध्यम से मंदिर के विध्वंस का कार्यक्रम बनाया जिसमे ख्वाजा  कजल अब्बास मूसा  भी शामिल हो गए । बाबा श्यामनन्द जी अपने सड़क मुस्लिम शिष्यों की करतूत देख के बहुत दुखी हुए और अपने निर्णय पर उन्हें बहुत पछतावा हुआ। भगवान का मंदिर तोड़ने की योजना के एक दिन पूर्व दुखी मन से  बाबा श्यामनन्द जी ने रामलला की मूर्तियाँ सरयू में प्रवाहित किया और खुद हिमालय की और तपस्या करने चले गए। मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के अन्य सामान आदि हटा लिए और वे स्वयं मंदिर के द्वार पर खड़े हो गए उन्होंने कहा की रामलला के मंदिर में किसी का भी प्रवेश हमारी मृत्यु के बाद ही होगा।  जलालशाह की आज्ञा के अनुसार उन चारो पुजारियों के सर काट लिए गए. उसके बाद तो देशभर के हिन्दू राम जन्मभूमि के कवच बन कर खड़े  हो गए ॥इतिहासकार कनिंघम अपने लखनऊ गजेटियर के 66वें अंक के पृष्ठ 3 पर लिखता है की एक लाख चौहतर हजार हिंदुओं की लाशे  गिर जाने के पश्चात  मीरबाँकी  अपने मंदिर ध्वस्त करने के अभियान मे सफल हुआ और  उसके बाद जन्मभूमि के चारो और तोप लगवाकर मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया.. ज्ञातव्य रहे की मंदिर को बचने के लिए ये युद्ध भीटी के राजा, राजा महताब सिंह ने लड़ा था और वीर गति को प्राप्त हुए एवं विवादित ढांचे का निर्माण किस प्रकार हुआ (जिसे कुछ भाई बाबरी मस्जिद का नाम भी देते हैं) इसका विस्तृत विवरण मैं अगली पोस्टों में दूंगा..  


अयोध्या एवं राम जन्मभूमि का इतिहास -3

 

भाग दो मे आप ने पढ़ा की किस प्रकार राम जन्मभूमि मंदिर का विध्वंस हिन्दू वीरो की लाशों पर जलालशाह और बाबर ने किया ॥  अब आगे का वर्णन 
अयोध्या मे विवादित ढांचे(बाबरी मस्जिद) का निर्माण और  बाबर की कूटनीति:  जैसा की पहले बताया जा चुका है जलालशाह की आज्ञा से
 मीरबाँकी खा ने तोपों से जन्भूमि पर बने मंदिर को गिरवा दिया और मस्जिद का निर्माण मंदिर की नींव और मंदिर निर्माण के सामग्रियों से ही शुरू हो गया॥ मस्जिद की दिवार को जब मजदूरो ने बनाना शुरू किया तो पूरे दिन जितनी दिवार बनती रात में अपने आप वो गिर जाती ॥ सबके मन मे एक प्रश्न की ये दीवार गिराता कौन है ??मंदिर के चारो ओर सैनिको का पहरा लगा दिया गया,महीनो तक प्रयास होते रहे लाखों रूपये की बर्बादी हुई मगर मस्जिद की एक दिवार तक न बन पाई ॥  हिन्दुस्थान के दो इस्लामिक गद्दारों  ख्वाजा कजल अब्बास मूसा और जलालशाह की सारी सिद्धियाँ उस समय धरी की धरी रह गयी ॥  सारे प्रयासों के पश्चात भी मस्जिद की एक दिवार भी न बन पाने की स्थिति में वजीर मीरबाँकी खा ने विवश हो के बाबर को इस समस्या के बारे में एक पत्र लिखा।  बाबर ने मीरबाँकी खा को पत्र भिजवाया की  मस्जिद निर्माण का काम बंद करके वापस दिल्ल्की आ जाओ । एक बार पुनः जलालशाह ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए ये सन्देश भिजवाया की बाबर अयोध्या आये। 
जलालशाह का पत्र पा के बाबर वापस अयोध्या आया और जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा से इस समस्या से निजात पाने का तरीका पूछा। ख्वाजा कजल अब्बास मूसा  और जलालशाह ने सुझाव दिया की ये काम इस्लाम से प्राप्त की गयी सिद्धियों के वश का नहीं है, अब नीति से काम लेते हुए हमे हिन्दू संतो से वार्ता करनी चाहिए वही अपने प्रभाव और सिद्धियों से कुछ रास्ता निकाल सकते हैं। 
बाबर ने हिन्दू संतो के पास वार्ता का प्रस्ताव भेजा.। उस समय तक जन्मभूमि टूट चुकी थी और अयोध्या को खुर्द मक्का बनाने के लिए कब्रों से पाटना शुरू किया जा चूका था ,पूजा पाठ भजन कीर्तन पर जलालशाह  ने प्रतिबन्ध लगवा दिया था। इन विषम परिस्थितियों में हिन्दू संतो ने बाबर से वार्ता करने का निर्णय लिया जिससे काम जन्मभूमि के पुनरुद्धार का एक रास्ता निकाल सके।

बाबर ने अब धार्मिक सद्भावना की झूटी कूटनीति चलते हुए संतो से  कहा की आप के पूज्य बाबा श्यामनन्द जी के बाद जलालशाह उनके स्वाभाविक उत्तराधिकारी है और ये मस्जिद निर्माण की हठ नहीं छोड़ रहे हैं,आप लोग कुछ उपाय बताएं उसके बदले में हिंदुओं को  पुजा पाठ करने मे छूट दे दी जाएगी॥
हिन्दू महात्माओं ने जन्मभूमि को बचाने का आखिरी प्रयास करते हुए  अपनी सिद्धि से इसका निवारण बताया की यहाँ एक पूर्ण मस्जिद बनाना असंभव कार्य है  मस्जिद के नाम से हनुमान जी इस ढांचे का निर्माण  नहीं होने देंगे ।इसे मस्जिद का रूप मत दीजिये। इसे सीता जी (सीता पाक अरबी मे ) के नाम से बनवाइए ॥और भी कुछ परिवर्तन कराये मस्जिद का रूप न देकर यहाँ हिन्दू महात्माओं को भजन कीर्तन पाठ की स्वतन्त्रता दी जाए चूकी जलालशाह  अपनी मस्जिद की जिद पर अड़ा  था अतः महात्माओं ने सुझाव दिया की एक दिन मुसलमान शुक्रवार के दिन यहाँ जुमे  की नमाज पढ़ सकते हैं।
जलालशाह को हिंदुओं को छूट देने का विचार पसंद नहीं आया मगर कोई रास्ता न बन पड़ने के कारण उन्होने हिंदु  संतों  का ये प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।  मंदिर के निर्माण के प्रयोजन हेतु दिवारे उठाई जाने लगी और दरवाजे पर सीता पाक स्थान फारसी भाषा मे लिखवा दिया गया जिसे सीता रसोई भी कहते हैं॥  नष्ट किया गया सीता पाक स्थान पुनः बनवा दिया गया लकड़ी लगा कर मस्जिद के द्वार मे भी परिवर्तन कर दिया ॥ अब वो स्थान न तो पूर्णरूपेण मंदिर था न ही मस्जिद । मुसलमान वहाँ शुक्रवाकर को जुमे की नमाज अदा करते और बाकी दिन हिंदुओं को भजन और कीर्तन की अनुमति थी॥
इसप्रकार मुगल सम्राट बाबर ने अपनी कूटनीति से अयोध्या मे एक ढांचा तैयार करने मे सफलता प्राप्त की जिसे हमारे कुछ भाई बाबरी मस्जिद का नाम देते हैं॥ यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है किसी भी मस्जिद मे क्या किसी भी हिन्दू को पुजा पाठ या भजन कीर्तन  की इजाजत इस्लाम देता है?? यदि नहीं तो बाबर ने ऐसा क्यू किया?? जाहीर है उसके मन मे उन काफिरो के प्रति प्यार तो उमड़ा नहीं होगा जिनके घर की बहू बेटियों को वो जबरिया अपने हरम मे रखते थी और यदि ये एक धार्मिक सदभाव का नमूना था तो मंदिर को ध्वस्त करते समय 1 लाख 74 हजार हिंदुओं की लाशे गिरते समय बाबर की ये सदभावना कहा थी??
यदि मीरबाँकी एवं बाबर के मंदिर को तोड़ने के निर्णय और उसके तथ्यात्मक और प्रमाणिक विश्लेषण पर आए और उस समय आस पास इसकी क्या प्रतिक्रिया हुई ये जानने की कोशिश करे..
बाबर के मंदिर को तोड़ने के निर्णय की प्रतिक्रिया के प्रमाण इतिहास में किसी एक जगह संकलित नहीं मिलते हैं इसका कारण ये था की उसके बाद का ज्यादातर इतिहास मुगलों के अनुसार लिखा गया।  कुछ एक मुग़ल कालीन राजपत्रों और दस्तावेजों  के माध्यम से जो बाते उभर कर सामने आई वो निम्नवत हैं.
जब मंदिर तोड़ने का निर्णय लिया गया उस समय बाबर ने व्यापक हिन्दू प्रतिक्रिया को देखते हुए बाहर  के राज्यों से हिन्दुओं को अयोध्या आने पर रोक लगा दिया गया था। सरकार की आज्ञा प्रचारित की गयी की कोई भी ऐसा व्यक्ति जैस्पर ये संदेह हो की वह हिन्दू है और अयोध्या जाना चाहता है उसे कारागार मे डाल दिया जाए। 
सन १९२४ मार्डन
 रिव्यू  नाम के एक पत्र में "राम की अयोध्या नाम" शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ जिसके लेखक श्री स्वामी सत्यदेव परिब्रापजक थे जो की एक अत्यंत प्रमाणिक  लेखक थे । स्वामी जी दिल्ली में अपने किसी शोध कार्य के लिए पुराने मुगलकालीन कागजात खंगाल रहे थे उसी समय उनको प्राचीन मुगलकालीन सरकारी कागजातों के साथ फारसी लिपि में लिथो प्रेस द्वारा प्रकाशित,बाबर का एक शाही फरमान प्राप्त हुआ जिसपर शाही मुहर भी लगी हुई थी। ये फरमान अयोध्या में स्थित श्री राम मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाने के सन्दर्भ में शाही अधिकारियों को जारी  किया गया था । यह पत्र माडर्न रिव्यू के ६ जुलाई सन १९२४ के "श्री राम की अयोध्या" धारावाहिक में भी छपा था. उस फरमान का हिंदी अनुबाद निम्नवत है । 
"शहंशाहे हिंद मालिकूल जहाँ बाबर के हुक्म से हजरत जलालशाह (ज्ञात  रहे ये वही जलालशाह है जो पहले अयोध्या के महंत  महात्मा श्यामनन्द जी महाराज का शिष्य बन के अयोध्या में शरण लिया था) के हुक्म के बमुजिव अयोध्या के राम की जन्मभूमि को मिसमार करके उसी जगह पर उसी के मसाले से मस्जिद तामीर करने की इजाजत दे दी गयी. बजरिये इस हुक्मनामे के तुमको बतौर इत्तिला के आगाह किया जाता है की हिंदुस्तान के किसी भी गैर सूबे से कोई हिन्दू अयोध्या न जाने पावे जिस शख्श पर यह सुबहा हो की यह अयोध्या जाना चाहता है फ़ौरन गिरफ्तार करके दाखिले जिन्दा कर दिया जाए. हुक्म सख्ती से तमिल हो फर्ज समझकर" ...                                                    (अंत में बाबर की शाही मुहर)
बाबर के उपरोक्त हुक्मनामे से स्पष्ट होता है की उस समय की मुग़ल सरकार भी यह समझती  थी की श्री राम जन्मभूमि को तोड़ कर उस जगह पर मस्जिद खड़ा कर देना आसान काम  नहीं है। इसका प्रभाव सारे हिंदुस्थान पर पड़ेगा। धार्मिक भावनाए आहत होने से हिंदुओं का परे देश मे ध्रुवीकरण हो जाएगा उस स्थिति मे दिल्ली का सिंहासन बचना मुश्किल होगा अतः अयोध्या को  अन्य प्रांतो से अलग थलग करने का हुक्मनामा जारी किया गया॥

चूकी उपलब्ध साक्ष्यों की परिधि के इर्दगिर्द ही ये विश्लेषण है अतः पूरे दावे के साथ मैं ये नहीं कह सकता की बाबर के इस फरमान की प्रतिक्रिया या असर  क्या रहा?? क्यूकी कोई ठोस लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है मगर जैसा पहले भी मैं लिख चूका हूँ ,कनिंघम के लखनऊ गजेटियर में प्रकाशित रिपोर्ट यह बतलाती है की युद्ध करते हुए जब एक लाख चौहत्तर हजार हिन्दू जब मारे  जा चुके थे और हिन्दुओं की लाशों का ढेर लग गया तब जा के  मीरबाँकी खां ने तोप के द्वारा रामजन्मभूमि मंदिर गिरवाया। कनिंघम के पास इस रिपोर्ट के क्या साक्ष्य थे ये तो कनिंघम के साथ ही चले गए मगर इस रिपोर्ट से एक बात स्थापित हुई की वहां मंदिर गिराने से पहले हिन्दुओं का प्रतिरोध हुआ था और उनकी बड़े स्तर पर हत्या भी हुई थी। 
इसी प्रकार हैमिल्टन नाम का एक अंग्रेज बाराबंकी गजेटियर में लिखता है की " जलालशाह ने हिन्दुओं के खून का गारा बना के लखौरी ईटों की नीव मस्जिद बनवाने के लिए दी गयी थी।  "
ये तो हुए अन्य  इतिहासकारों के प्रसंग  अब आते हैं बाबरनामा के एक प्रसंग पर जिसे पढ़कर ये बात तो स्थापित हो जाती है की बाबर के आदेश से जन्मभूमि का मंदिर ध्वंस हुआ था और उसी जगह पर विवादित ढांचा(मस्जिद) बनवाई गयी .. 
बाबर के शब्दों में .. " हजरत कजल अब्बास मूसा आशिकन कलंदर साहब ( ज्ञात  रहे ये वही हजरत कजल अब्बास मूसा हैं जो जलालशाह के पहले अयोध्या के महंत  महात्मा श्यामनन्द जी महाराज का शिष्य बन के अयोध्या में शरण लिए) की इजाजत से जन्मभूमि मंदिर को मिसमार करके मैंने उसी के मसाले से उसी जगह पर यह मस्जिद तामीर की सन्दर्भ: बाबर द्वारा लिखित  बाबरनामा पृष्ठ १७३)


इस प्रकार बाबर,वजीर मीरबाँकी खा के अत्याचारों कूटनीति और महात्माश्यामनन्द जी महाराज  के दो आस्तीन में छुरा भोंकने वाले शिष्यों  हजरत कजल अब्बास मूसा और जलालशाह के धोखेबाजी के फलस्वरूप रामजन्मभूमि का मंदिर गिराया गया और एक विवादित ढांचें (जिसे कुछ भाई मस्जिद का नाम देते हैं) का निर्माण हुआ ॥ 

लेख के अगले भाग मे मै उन हिन्दू वीर राजाओं का क्रमिक वर्णन दूंगा जिन्होने  जन्मभूमि के रक्षार्थ अनेकों युद्ध किए और जन्मभूमि को मुक्त करने का प्रयास किया॥ 


अयोध्या एवं राम जन्मभूमि का इतिहास -4

 

पिछले भाग मे आप ने पढ़ा की किस प्रकार  बाबर,वजीर मीरबाँकी खा के अत्याचारों कूटनीति और महात्माश्यामनन्द जी महाराज के दो आस्तीन में छुरा भोंकने वाले शिष्यों हजरत कजल अब्बास मूसा और जलालशाह के धोखेबाजी के फलस्वरूप रामजन्मभूमि का मंदिर गिराया गया और एक विवादित ढांचें (जिसे कुछ भाई मस्जिद का नाम देते हैं) का निर्माण हुआ ॥ अब जन्मभूमि को मुक्त करने के लिए हुए युद्धों का वर्णन ॥ बाबर के समय में चार आक्रमण:
(१) राजा महताब सिंह का पहला आक्रमण: बाबर के समय जन्मभूमि को मुसलमानों से मुक्त करने के लिए सर्वप्रथम आक्रमण भीटी के राजा महताब सिंह द्वारा किया गया। जिस समय मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाने की घोषणा हुई उस समय सम्पूर्ण हिन्दू जनमानस में एक प्रकार से क्रोध और क्षोभ की लहर दौड़ गयी।  उस समय भीटी के राजा महताब सिंह बद्री नारायण की यात्रा करने के लिए निकले थे,अयोध्या पहुचने पर रास्ते में उन्हें ये खबर मिली तो उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी। चुकी महताब सिंह के पास सेना छोटी थी अतः उन्हें परिणाम मालूम था मगर उन्होंने निश्चय किया की रामलला के मंदिर को अपने जीते जी ध्वस्त नहीं होने देंगे उन्होंने सुबह सुबह अपने आदमियों को भेजकर सेना तथा कुछ हिन्दुओं को की सहायता से १ लाख चौहत्तर हजार लोगो को तैयार कर लिया. बाबर की सेना में ४ लाख ५० हजार सैनिक थे। युद्ध का परिणाम एकपक्षीय हो सकता था मगर रामभक्तों ने सौगंध ले रक्खी थी रक्त की आखिरी बूंद तक लड़ेंगे जब तक प्राण है तब तक मंदिर नहीं गिरने देंगे। भीटी के राजा महताब सिंह ने कहा की बद्री नारायण की यात्रा करने के लिए निकला था यदि वीरगति को प्राप्त हुआ तो सीधा स्वर्ग गमन होगा और उन्होंने युद्ध शुरू कर दिया । रामभक्त वीरता के साथ लड़े ७० दिनों तक घोर संग्राम होता रहा और अंत में राजा महताब सिंह समेत सभी १ लाख ७४ हजार रामभक्त मारे गए बाबर की ४ लाख ५० हजार की सेना के अब तीन  हजार एक सौ पैतालीस सैनिक बचे रहे। इस भीषण कत्ले आम के बाद मीरबांकी ने तोप लगा के मंदिर गिरवाया।   

(2) देवीदीन  पाण्डेय द्वारा द्वितीय आक्रमण:(३ जून १५१८-९ जून १५१८)  राजा महताब सिंह और लाखो हिन्दुओं को क़त्ल करने के बाद  मीरबांकी ने तोप लगा के मंदिर गिरवा दिया मंदिर के मसाले से ही मस्जिद का निर्माण हुआ पानी की जगह मरे हुए हिन्दुओं का रक्त इस्तेमाल किया गया नीव में लखौरी इंटों के साथ । उस समय अयोध्या से ६ मील की दूरी पर सनेथू नाम का एक गांव है वहां के पंडित देवीदीन पाण्डेय ने वहां के आस पास के गांवों  सराय सिसिंडा राजेपुर आदि के सूर्यवंशीय क्षत्रियों को एकत्रित किया॥   
देवीदीन  पाण्डेय  ने सूर्यवंशीय क्षत्रियों से कहा भाइयों आप लोग मुझे अपना राजपुरोहित मानते हैं ..अप के पूर्वज श्री राम थे और हमारे पूर्वज महर्षि भरद्वाज जी।  श्री राम ने महर्षि भरद्वाज से प्रयाग में दीक्षा ग्रहण की थी और अश्वमेघ में हमे १० हजार बीघे का द्वेगांवा नामक ग्राम दिया था..आज उसी मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जन्मभूमि को मुसलमान आक्रान्ता कब्रों से पाट रहे हैं और खोद रहे हैं इस परिस्थिति में हमारा मूकदर्शक बन कर जीवित रहने की बजाय जन्मभूमि की रक्षार्थ युद्ध करते करते वीरगति पाना ज्यादा उत्तम होगा॥
देवीदीन 
पाण्डेय की आज्ञा से दो दिन के भीतर ९० हजार क्षत्रिय इकठ्ठा हो गए दूर दूर के गांवों से लोग समूहों में इकठ्ठा हो कर देवीदीन पाण्डेय के नेतृत्व में जन्मभूमि पर जबरजस्त धावा बोल दिया इस एकाएक हुए आक्रमण से  मीरबाँकी  घबरा उठा।  शाही सेना से लगातार ५ दिनों तक युद्ध हुआ शाही सेना संख्या बल में काफी बड़ी थी और रामभक्त काम मगर राम के लिए बलिदान देने को तैयार । छठे दिन मीरबाँकी का सामना देवीदीन पाण्डेय से हुआ उसी समय धोखे से उसके अंगरक्षक ने एक लखौरी ईटसे पाण्डेय जी की खोपड़ी पर वार कर दिया।  देवीदीन पाण्डेय की खोपड़ी बुरी तरह फट गयी मगर उस वीर ने अपने पगड़ी से खोपड़ी से बाँधा और तलवार से उस कायर अंगरक्षक का सर काट दिया और मीरबाँकी को ललकारा। मीरबाँकी तो छिप कर बच निकला मगर तलवार के वार से महावत सहित हाथी मर गया।  इसी बीच मीरबाँकी ने गोली चलायी जो पहले ही से घायल देवीदीन पाण्डेय जी को लगी और वो जन्मभूमि की रक्षा में वीर गति को प्राप्त हुए.जैसा की देवीदीन पाण्डेय की इच्छा थी उनका अंतिम संस्कार विल्हारी घाट पर किया गया। यह आक्रमण देवीदीन जी ने ३ जून सन १५१८ को किया था और ९ जून १५१८ को २ बजे दिन में देवीदीन पाण्डेय वीरगति को प्राप्त हो गए।  देवीदीन पाण्डेय के वंशज सनेथू ग्राम के ईश्वरी पांडे का पुरवा नामक जगह पर अब भी मौजूद हैं॥
इस युद्ध की प्रमाणिकता बाबर द्वारा लिखित "तुजुक बाबरी" से प्रमाणित होती है...बाबर के शब्दों में.....
"जन्मभूमि को शाही अख्तियारों से बाहर करने के लिए जो चार हमले हुए उनमे से सबसे बड़ा हमला देवीदीन पांडे का था, इस शख्स ने एक बार में सिर्फ तीन घंटे के भीतर गोलियों की बौछार के रहते हुए भी ,शाही फ़ौज के सात सौ आदमियों का क़त्ल किया। सिपाही की ईट से खोपड़ी  चकनाचूर हो जाने के बाद भी वह उसे अपनी पगड़ी के कपडे से बांध कर लड़ा जैसे किसी बारूद की थैली में पलीता लगा दिया गया हो आखिरी में वजीर मीरबाँकी की गोली से उसकी मृत्यु हुई ॥     सन्दर्भ "तुजुक बाबरी पृष्ठ ५४०"

(3)हंसवर राजा रणविजय सिंह द्वारा तीसरा आक्रमण: देवीदीन पाण्डेय की मृत्यु के १५ दिन  बाद हंसवर के महाराज रणविजय सिंह ने आक्रमण करने को सोचा।  हालाकी रणविजय सिंह की सेना में सिर्फ २५ हजार सैनिक थे और युद्ध एकतरफा था मीरबाँकी की सेना बड़ी और शस्त्रो से सुसज्जित थी ,इसके बाद भी रणविजय सिंह ने जन्मभूमि रक्षार्थ अपने क्षत्रियोचित धर्म का पालन करते हुए युद्ध को श्रेयस्कर समझा। 10 दिन तक युद्ध चला और महाराज जन्मभूमि के रक्षार्थ वीरगति को प्राप्त हो गए।

(4) माताओं बहनों का जन्मभूमि के रक्षार्थ आक्रमण: रानी जयराज कुमारी का नारी सेना बना कर जन्मभूमि को मुक्त करने का प्रयास। रानी जयराज कुमारी हंसवर के  स्वर्गीय महाराज रणविजय सिंह की पत्नी थ।जन्मभूमि की रक्षा में महाराज के वीरगति प्राप्त करने के बाद महारानी ने उनके  कार्य को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया और तीन हजार नारियों की सेना लेकर उन्होंने जन्मभूमि पर हमला बोल दिया। बाबर की अपार सैन्य सेना के सामने ३ हजार नारियों की सेना कुछ नहीं थी अतः उन्होंने गुरिल्ला युद्ध जारी रखा और वो युद्ध रानी जयराज कुमारी ने हुमायूँ के शासनकाल तक जारी रखा जब तक की जन्मभूमि को उन्होंने अपने कब्जे में नहीं ले लिया। रानी के गुरु स्वामी महेश्वरानंद जी ने रामभक्तो को इकठ्ठा करके सेना का प्रबंध करके  जयराज कुमारी की सहायता  की। चूकी रामजन्म भूमि के लिए संतो और छोटे राजाओं के पास शाही सेना के बराबर संख्याबल की सेना नहीं होती थी अतः स्वामी महेश्वरानंद जी ने सन्यासियों की सेना बनायीं इसमें उन्होंने २४ हजार सन्यासियों को इकठ्ठा किया और रानी जयराज कुमारी के साथ , हुमायूँ के समय १० हमले जन्मभूमि के उद्धार के लिए किये और १०वें हमले में शाही सेना को काफी नुकसान हुआ और जन्मभूमि पर रानी जयराज कुमारी का अधिकार हो गया।
लगभग एक महीने बाद हुमायूँ ने  पूर्ण रूप से तैयार शाही सेना फिर भेजी ,इस युद्ध में स्वामी महेश्वरानंद और रानी कुमारी जयराज कुमारी लड़ते हुए अपनी बची हुई सेना के साथ मारे गए और जन्मभूमि पर पुनः मुगलों का अधिकार हो गया।
इस युद्ध किया वर्णन दरबरे अकबरी कुछ इस प्रकार करता है॥
"सुल्ताने हिन्द बादशाह हुमायूँ के वक्त मे सन्यासी स्वामी महेश्वरानन्द और रानी जयराज कुमारी दोनों अयोध्या के आस पास के हिंदुओं को इकट्ठा करके लगातार 10 हमले करते रहे । रानी जयराज कुमारी ने तीन हज़ार औरतों की फौज लेकर बाबरी मस्जिद पर जो आखिरी हमला करके कामयाबी हासिल की । इस लड़ाई मे बड़ी खूंखार लड़ाई लड़ती हुई जयराजकुमारी मारी गयी और स्वामी महेश्वरानंद भी अपने सब साथियों के साथ लड़ते लड़ते खेत रहे।
 

  अयोध्या एवं राम जन्मभूमि का इतिहास -5

 

जन्मभूमि के लिए हुए अनेको संघर्ष : स्वामी बलरामचारी, बाबा वैष्णव दास, एवं सिक्खो के गुरुगोविंद सिंह द्वारा जन्मभूमि के रक्षार्थ युद्ध, औजरंगजेब की करारी हार। सन 1664 के हमले मे हजारो निर्दोष हिंदुओं की हत्या और बचा हुआ राम मंदिर ध्वस्त ॥
(5)स्वामी बलरामचारी द्वारा आक्रमण: रानी जयराज कुमारी और   स्वामी महेश्वरानंद   जी के बाद यद्ध का नेतृत्व स्वामी बलरामचारी जी ने अपने हाथ में ले लिया।  स्वामी बलरामचारी  जी ने गांवो गांवो में घूम कर रामभक्त हिन्दू युवको और सन्यासियों की एक मजबूत सेना तैयार करने का प्रयास किया और जन्मभूमि के उद्धारार्थ २० बार आक्रमण किये. इन २० हमलों में काम से काम १५ बार स्वामी बलरामचारी ने जन्मभूमि पर अपना अधिकार कर लिया मगर ये अधिकार अल्प समय के लिए रहता था थोड़े दिन बाद बड़ी शाही फ़ौज आती थी और जन्मभूमि पुनः मुगलों के अधीन हो जाती थी. स्वामी बालरामचारी  का २० वां आक्रमण बहुत प्रबल था  और शाही सेना को काफी क्षति उठानी पड़ी। उस समय का मुग़ल शासक अकबर था वो स्वामी बलरामचारी की वीरता से प्रभावित हुआ और शाही सेना का हर आते हुए दिन के साथ  इन युद्धों से क्षय हो रहा था..धीरे धीरे देश के हालत मुगलों के खिलाफ होते जा रहे थे अतः अकबर ने अपने दरबारी टोडरमल और बीरबल से इसका हल निकालने को कहा। 
विवादित  ढांचे के सामने स्वामी बलरामचारी ने एक चबूतरा बनवाया था जब जन्मभूमि थोड़े दिनों के लिए उनके अधिकार में आई थी। अकबर ने बीरबल और टोडरमल के कहने पर खस की टाट से उस चबूतरे पर ३ फीट का एक छोटा सा मंदिर बनवा दिया. लगातार युद्ध करते रहने के कारण स्वामी बलरामचारी का स्वास्थ्य गिरता चला गया और पयाग कुम्भ के अवसर पर त्रिवेणी तट पर स्वामी बलरामचारी की मृत्यु हो गयी ..इस प्रकार स्वामी बलरामचारी के आक्रमणों और हिन्दू जनमानस के रोष के कारण अकबर ने विवादित ढांचे के सामने एक छोटा मंदिर बनवाकर आने वाले आक्रमणों और हिन्दुस्थान पर मुगलों की  ढीली होती पकड़ से बचने का एक राजनैतिक प्रयास किया. 
इस नीति से कुछ दिनो के लिए ये झगड़ा शांत हो गया। उस चबूतरे पर स्थित भगवान राम की मूर्ति का पूजन पाठ बहुत दिनो तक अबाध गति से चलता रहा। हिंदुओं के पुजा पाठ या घंटा बजने पर कोई मुसलमान विरोध नहीं करता यही क्रम शाहजहाँ के समय भी चलता रहा।सन 1640 मे सनकी इस्लामिक शासक औरंगजेब के हाथ सत्ता आई वो पूर्णतया हिंदुविरोधी और दमन करने वाला था। उसने लगभग 10 बार अयोध्या मे मंदिरों को तोड़ने का अभियान चलकर यहाँ के सभी प्रमुख मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ डाला।
(6) बाबा वैष्णव दास के नेतृत्व मे आक्रमण: राजयसिंहासन पर बैठते हि सबसे पहले औरंगजेब का ध्यान अयोध्या की ओर गया । हिंदुधर्मविरोधी औरंगजेब ने अपने सिपहसालार जाँबाज खा के नेतृत्व मे एक विशाल सेना अयोध्या की ओर भेज दी। पुजारियों को ये बात पहले हि मालूम हो गयी अतः उन्होने भगवान की मूर्ति पहले ही छिपा दी। पुजारियों ने रातो रात घूमकर हिंदुओं को इकट्ठा किया ताकि प्राण रहने तक जन्मभूमि की रक्षा की जा सके। उन दिनो अयोध्या के अहिल्याघाट पर परशुराम मठ मे समर्थ गुरु श्री रामदास जी महाराज जी के शिष्य श्री वैष्णवदास जी दक्षिण भारत से यहाँ विधर्मियों से देश को मुक्त करने के प्रयास मे आए हुए थे। औरंगजेब के समय बाबा श्री वैष्णवदास जी ने जन्मभूमि के उद्धारार्थ 30 बार आक्रमण किये। इन आक्रमणों मे अयोध्या के आस पास के गांवों के सूर्यवंशीय क्षत्रियों ने पूर्ण सहयोग दिया जिनमे सराय के ठाकुर सरदार गजराज सिंह और राजेपुर के कुँवर गोपाल सिंह तथा सिसिण्डा के ठाकुर जगदंबा सिंह प्रमुख थे। ये सारे वीर ये जानते हुए भी की उनकी सेना और हथियार बादशाही सेना के सामने कुछ भी नहीं है अपने जीवन के आखिरी समय तक शाही सेना से लोहा लेते रहे और अंततः वीरगति को प्राप्त हुये। ठाकुर गजराज सिंह का मकान तक बादशाह के हुक्म पर खुदवा डाला। ठाकुर गजराज सिंह के वंशज आज भी सराय मे मौजूद हैं। आज भी फैजाबाद जिले के आस पास के सूर्यवंशीय क्षत्रिय सिर पर पगड़ी नहीं बांधते,जूता नहीं पहनते, छता नहीं लगाते,उन्होने अपने पूर्वजों के सामने ये प्रतिज्ञा ली थी की जब तक श्री राम जन्मभूमि का उद्धार नहीं कर लेंगे तब तक जूता नहीं पहनेंगे,छाता नहीं लगाएंगे,पगड़ी नहीं बाधेंगे। तत्कालीन कवि जयराज के एक दोहे मे ये भीष्म प्रतिज्ञा इस प्रकार वर्णित है ॥
        जन्मभूमि उद्धार होय, जा दिन बरी भाग।
        छाता जग पनही नहीं
,
 और न बांधहि पाग॥ 

(7) 
) बाबा वैष्णव दास एवं सिक्खो के गुरुगोविंद सिंह द्वारा जन्मभूमि के रक्षार्थ युद्ध: जैसा की पहले बताया जा चुका है की औरंगजेब ने गद्दी पर बैठते ही मंदिर को ध्वस्त करने के लिए जबांज खाँ के नेतृत्व मे एक जबरजस्त सेना भेज दी थी, बाबा वैष्णव दास को इस बात की भनक लगी बाबा वैष्णव दास के साथ साधुओं की एक सेना थी जो हर विद्या मे निपुण थी इसे चिमटाधारी साधुओं की सेना भी कहते थे । जब जन्मभूमि पर जबांज खाँ ने आक्रमण किया तो हिंदुओं के साथ चिमटाधारी साधुओं की सेना की सेना मिल गयी और उर्वशी कुंड नामक जगह पर जाबाज़ खाँ  की सेना से सात दिनो तक भीषण युद्ध किया । चिमटाधारी साधुओं के चिमटे के मार से मुगलो की सेना भाग खड़ी हुई। इस प्रकार चबूतरे पर स्थित मंदिर की रक्षा हो गयी ।
जाबाज़ खाँ की पराजित सेना को देखकर औरंगजेब बहुत क्रोधित हुआ और उसने जाबाज़ खाँ को हटकर एक अन्य सिपहसालार सैय्यद हसन अली को  50 हजार सैनिको की सेना देकर अयोध्या की ओर भेजा और साथ मे ये आदेश दिया की अबकी बार जन्मभूमि को तहस नहस कर के वापस आना है ,यह समय सन 1680 का था ।
बाबा वैष्णव दास ने अपने संदेशवाहको द्वारा सिक्खों के गुरु गुरुगोविंद सिंह से युद्ध मे सहयोग के लिए पत्र के माध्यम संदेश भेजा । गुरुगोविंद सिंह उस समय आगरे मे सिक्खों की एक सेना ले कर मुगलो को ठिकाने लगा रहे थे। पत्र पा के गुरु गुरुगोविंद सिंह सेना समेत अयोध्या आ गए और ब्रहमकुंड पर अपना डेरा डाला । ज्ञातव्य रहे की ब्रहमकुंड वही जगह जहां आजकल गुरुगोविंद्सिंह की स्मृति मे सिक्खों का गुरुद्वारा बना हुआ है। बाबा वैष्णव दास के जासूसों द्वारा ये खबर आई की हसन आली 50 हजार की सेना और साथ मे तोपखाना ले कर अयोध्या की ओर आ रहा है । इसे देखते हुए एक रणनीतिक निर्णय के तहत बाबा वैष्णव दास एवं सिक्खो के गुरुगोविंद सिंह ने अपनी सेना को तीन भागों मे विभक्त कर दिया । पहला दल सिक्खों के एक छोटे से तोपखाने के साथ फैजाबाद के वर्तमान सहादतगंज के खेतो के पास छिप गए । दूसरा दल जो क्षत्रियों का था वो रुदौली मे इस्लामिक सेना से लोहा लेने लगे। और बाबा वैष्णव दास का तीसरा दल चिमटाधारी जालपा नाला पर सरपत के जंगलो मे जगह ले कर  मुगलो की प्रतीक्षा करने लगा।
शाही सेना का सामना सर्वप्रथम रुदौली के क्षत्रियों से हुआ एक साधारण सी लड़ाई के बाद पूर्वनिर्धारित रणनीति के अनुसार वो पीछे हट गए और चुपचाप सिक्खों की सेना से मिल गए । मुगल सेना ने समझा की हिन्दू पराजित हो कर भाग गये,इसी समय गुरुगोविंद सिंह के नेतृत्व मे सिक्खों का दल उन पर टूट पड़ा,दूसरे तरफ से हिंदुओं का दल भी टूट पड़ा सिक्खों ने मुगलो की सेना के शाही तोपखाने पर अधिकार कर लिया दोनों तरफ से हुए सुनियोजित हमलो से मुगलो की सेना के पाँव उखड़ गये सैय्यद हसन अली भी युद्ध मे मारा गया। औरंगजेब हिंदुओं की इस प्रतिक्रिया से स्तब्ध रह गया था इस करारी हार के बाद औरंगजेब ने कुछ समय तक अयोध्या पर हमले का कार्यक्रम स्थगित कर दिया । हिंदुओं से मिली इस हार का वर्णन औरंगजेब आलमगीर नामे मे कुछ इस प्रकार लिखता है
“बाबरी मस्जिद के लिए काफिरो ने 20 हमले किए सबमे लापरवाही की वजह से शाही फौज ने शिकस्त खायी। आखिरी हमला जो गुरुगोविंदसिंह के साथ बाबा वैष्णव दास का हुआ उसमे शाही फौज का सबसे बड़ा नुकसान हुआ । इस लड़ाई मे शहजादा मनसबदार सरदार हसन ली खाँ भी मारे गये ।"                                                                                                         
इस युद्ध के बाद साल तक औरंगजेब ने अयोध्या पर हमला करने की हिम्मत नहीं की। मगर इन चार वर्षों मे हिन्दू कुछ असावधान हो गए। औरंगजेब ने इसका लाभ उठाते हुए सान 1664 मे पुनः एक बार श्री राम जन्मभूमि पर आक्रमण किया ।इन चार वर्षों मे सभी एकत्रित हिन्दू अपने अपने क्षेत्रों मे चले गए थे।अतः ये एकतरफा युद्ध था हालाँकि कुछ पुजारियों और हिंदुओं ने मंदिर रक्षा का प्रयत्न किया मगर शाही सेना के सामने निहत्थे हिन्दू जीतने की स्थिति मे नहीं थे,पुजारियों ने रामलला की प्रतिमा छिपा दी । इस हमले मे शाही फौज ने लगभग 10 हजार हिंदुओं की हत्या कर दी ।मंदिर के अंदर नवकोण के एक कंदर्प कूप नाम का कुआं था, सभी मारे गए हिंदुओं की लाशें मुगलो ने उसमे फेककर चारो ओर चहारदीवारी उठा कर उसे घेर दिया। आज भी कंदर्पकूप “गज शहीदा” के नाम से प्रसिद्ध है,और मंदिर के पूर्वी द्वार पर स्थित है जिसे मुसलमान अपनी संपत्ति बताते हैं।
औरंगजेब ने इसका वर्णन कुछ इस प्रकार किया है । 
“लगातार चार बरस तक चुप रहने के बाद रमजान की 27वी तारीख को शाही फौज ने फिर अयोध्या की रामजन्मभूमि पर हमला किया । इस अचानक हमले मे दस हजार हिन्दू मारे गये। उनका चबूतरा और मंदिर खोदकर ज़मींदोज़ कर दिया गया । इस वक्त तक वह शाही देखरेख मे है।                                                                                                            
शाही सेना ने जन्मभूमि का चबूतरा खोद डाला बहुत दिनो तक वह चबूतरा गड्ढे के रूप मे वहाँ स्थित था । औरंगजेब के क्रूर अत्याचारो की मारी हिन्दू जनता अब उस गड्ढे पर ही श्री रामनवमी के दिन भक्तिभाव से अक्षत,पुष्प और जल चढाती रहती थी.  


अयोध्या एवं राम जन्मभूमि का इतिहास -6

 

नबाब सहादत अली के समय जन्मभूमि के रक्षार्थ युद्ध: अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह और पिपरपुर के राजकुमार सिंह के नेतृत्व मे बाबरी ढांचे पर पुनः पाच आक्रमण किया गया और जन्मभूमिपर अधिकार हो गया । यह युद्ध सुल्तानपुर गजेटियर के आधार पर 1763 ईसवी मे हुआ था।  मगर हर बार की तरह मुह की खाने के बाद अपेक्षाकृत ज्यादा बड़ी और संगठित शाही सेना जन्मभूमि को अपने अधिकार मे ले लेती थी। मगर इसके बाद भी आस पास के हिंदुओं ने अगले कई सालो तक जन्मभूमि के रक्षार्थ  युद्ध जारी रखा । इस रोज रोज के आक्रमण से जन्मभूमि पर कब्जा बनाए रखने के लिए मुगल सेना की काफी क्षति हो रही थी और इसका बाबर की तरह नबाब सहादत ली ने भी हिंदुओं और मुसलमानो को एक ही स्थान पर इबादत और पुजा की छूट दे दी । तब जा के कुछ हद तक उसने नुकसान पर काबू पाया 
लखनऊ गजेटियर मे कर्नल हंट लिखता है की
लगातार हिंदुओं के हमले से ऊबकर नबाब ने हिंदुओं और मुसलमानो को एक साथ नमाज पढ़ने और भजन करने की इजाजज्त दे दी ,तब जा के झगड़ा शांत हुआ ।नबाब सहादत अली के लखनऊ की मसनद पर बैठने से लेकर पाँच वर्ष तक लगातार हिंदुओं के बाबरी मस्जिद पर दखलयाबो हासिल करने के लिए पाँच हमले हुए।
“लखनऊ गजेटियर पृष्ठ 62”
नासिरुद्दीन हैदर  के समय मे तीन आक्रमण :मकरही के राजा के नेतृत्व में जन्मभूमि को पुनः अपने रूप मे लाने के लिए हिंदुओं के तीन आक्रमण हुये । तीसरे आक्रमण मे हिन्दू संगठित थे अबकी बार डटकर नबाबी सेना का सामना हुआ 8वें दिन हिंदुओं की शक्ति क्षीण होने लगी,जन्मभूमि के मैदान मे हिन्दू और मुसलमानो की लाशों का ढेर लग गया । शाही सेना के सैनिक अधिक संख्या मे मारे गये। इस संग्राम मे भीती,हंसवर,,मकरही,खजुरहट,दीयरा अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह आदि सम्मलित थे। शाही सेना इन्हे पछाड़ती हुई  हनुमानगढ़ी  तक ले गयी। यहाँ चिमटाधारी साधुओं की सेना हिंदुओं से आ मिली और। इस युद्ध मे शाही सेना के चिथड़े उड गये  और उसे रौंदते हुए हिंदुओं ने जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया। मगर हर बार की तरह कुछ दिनो के बाद बड़ी शाही सेना ने पुनः जन्मभूमि पर अधिकार कर लिया।

पियर्सन बहराइच गजेटियर मे लिखता है
“जन्मभूमि पर अधिकार करने के लिए नवाब नसीरुद्दीन हैदर के समय मे मकरही के ताल्लुकेदार के साथ हिंदुओं की एक जबरदस्त भीड़ ने तीन बार हमला किया। आखिरी हमले मे शाही सेना के पाँव उखड़ गए और वह मैदान से भाग खड़ी हुई । किन्तु तीसरे दिन आने वाली जबरदस्त शाही हुक्म से लड़कर हिन्दू बुरी तरह हार गये और उनके हाथ से जन्मभूमि निकल गयी । “बहराइच गजेटियर पृष्ठ 73”
नबाब वाजीद अली के समय दो आक्रमण: नाबाब वाजीद आली शाह के समय के समय मे पुनः हिंदुओं ने जन्मभूमि के उद्धारार्थ आक्रमण किया । फैजाबाद गजेटियर मे कनिंघम के अनुसार इसबार शाही सेना किनारे थी और हिंदुओं और धर्मांतरित कराये गए हिंदुओं(नए नए बने मुसलमानो) को आपस मे लड़ कर निपटारा करने की छूट दे दी गयी थी। इस संग्राम मे बहुत ही भयंकर खूनखराबा हुआ ।दो दिन और रात होने वाले इस भयंकर युद्ध मे मुसलमान बुरी तरह पराजित हुए। फैजाबाद गजेटियर के अनुसार क्रुद्ध हिंदुओं की भीड़ ने उनके मकान तोड़ डाले कबरे तोड़ फोड़ कर बर्बाद कर डाली मस्जिदों को मिसमर करने लगे यहाँ तक की हिंदुओं ने मुर्गियों तक को जिंदा नहीं छोड़ा मगर हिन्दू भीड़ ने मुसलमान स्त्रियॉं और बच्चों को कोई हानि नहीं पहुचाई। मगर चूकी अब अङ्ग्रेज़ी प्रभाव हिंदुस्थान मे था अतः शाही सेना शुरू मे चुप थी अयोध्या मे प्रलय मचा हुआ था मुसलमान अयोध्या छोड़कर अपनी जान ले कर भाग निकले थे ।,इतिहासकार कनिंघम लिखता है की ये अयोध्या का सबसे  बड़ा हिन्दू मुस्लिम बलवा था। मुसलमानो की अत्यंत दुर्दशा और हार देखते हुए शाही सेना ने हस्तक्षेप किया जिसमे अब ज्यादा अंग्रेज़ थे। सारे शहर मे कर्फ़्यू आर्डर कर दिया गया । उस समय अयोध्या के राजा मानसिंह  और टिकैतराय ने नाबाब वाजीद आली शाह से कहकर हिंदुओं को फिर चबूतरा वापस दिलवाया । हिंदुओं ने अपना सपना पूरा किया और औरंगजेब द्वारा विध्वंस किए गए चबूतरे को फिर वापस बनाया । चबूतरे पर तीन फीट ऊँची खस की टाट से एक छोटा सा मंदिर बनवा लिया ॥जिसमे पुनः रामलला की स्थापना की गयी।
कुछ जेहादी मुल्लाओं को ये बात स्वीकार नहीं हुई उन्होने नबाब से जाके इस बात की शिकायत की नाबाबों ने एक बार हिंदुओं का क्रोध और राजनीतिक स्थिति देखते हुए हस कर एक कूटनीतिक उत्तर दिया की
हम इश्क के बंदे हैं मजहब से नहीं वाकिफ। गर काबा हुआ तो क्या?बुतखाना हुआ तो क्या??

नबाब के इस कूटनीति को अंग्रेज़ो का भी साथ मिला । मगर नबाब के इस निर्णय से जेहाद के लिए प्रतिबद्ध मौलवी आली आमिर सहमत नहीं हुआ ॥
मौलवी अली आमिर द्वारा जेहाद: नबाब के उक्त निर्णय पर अमेठी राज्य के पीर मौलवी अमीर अली ने जेहाद करने के लिए मुसलमानो को संगठित किया और जन्मभूमि पर आक्रमण करने के लिए कुछ किया। रास्ते मे भीती के राजकुमार जयदत्त सिंह से रौनाही के पास उसे रोककर घोर संग्राम किया और उसकी जेहादी सेना समेत उसे समाप्त कर दिया।
मदीतुल औलिया मे लिखा है की
“मौलवी साहब ने जुमे की नमाज पढ़ी।तकरीबन 170 आदमी जेहाद मे लेकर रवाना हुए । सन 1721 हिजरी 1772 हिजरी बकायदा मोकिद हुआ जेहाद का नाम सुनकर सैकड़ो मुसलमान शरीर जेहाद हुए। तकरीबन दो हजार की जमात रही होगी रौनही के पास जंग करते हुए शहीद हुए”

अयोध्या एवं राम जन्मभूमि का इतिहास -7

 

मुसलमानो द्वारा श्री राम जन्म भूमि के उद्धार का प्रयास 
सन 1857 की अंग्रेज़ो के खिलाफ हुई क्रांति मे बहादुर शाह जफर को सम्राट घोषित करके विद्रोह का नारा बुलंद किया गया। उस समय अयोध्या के हिन्दू राजा देवी बख्श सिंह
,गोंडा के नरेश एवं बाबा  राम चरणदास की अध्यक्षता मे संगठित हो गए । उस समय समय बागी मुसलमानो के नेता थे आमिर अली। आमिर अली ने अयोध्या के समस्त मुसलमानो को इकट्ठा करके कहा कि विरादरे वतन बेगमों के जेवरातों को बचाने मे हमारे हिन्दू भाइयों ने जिस परकर बहुदृपूर्व युद्ध किया है उसे हम भुला नहीं सकते । सम्राट बहादुरशाह जफर को अपना सम्राट मानकर हमारे हिन्दू भाई अपना खून बहा रहे हैं। इसलिए ये हमारा फर्ज बनता है कि हिंदुओं के खुदा श्रीरामचंद्र जी कि पैदायिसी जगह जो बाबरी मस्जिद बनी है, वह हम इन्हे बख़ुशी सपुर्द कर दे क्यूकी हिन्दू मुसलमान नाइत्फ़ाकी कि सबसे बड़ी जड़ यह बाबरी मस्जिद ही है । ऐसा करके हम इनके दिल पर फतह पा जाएंगे ।
ये बात भी सत्य है कि आमिर अली के इस प्रस्ताव का सभी मुसलमानो ने खुले दिल से एक स्वर से समर्थन किया । यहाँ एक बात जो ध्यान देने योग्य है कि आमिर अली के इस प्रस्ताव के बाद ये बात स्पष्ट हो जाती है कि मुसलमान भी जानते और मानते थे कि बाबरी ढांचा रामलला के जन्मभूमि पर बने मंदिर को ध्ब्वंस करके ही बनाया गया है। चूकी मुसलमान यह बात समझ चुके थी कि हिंदु कभी किसी के अस्तित्व के लिए खतरा नहीं हो सकता मगर अंग्रेज़ उनके समूल विनाश के उद्देश मे लगे हुए थे अतः इस बात पर एक सहमति बनती नजर आई ।
यह बात जब अङ्ग्रेज़ी सरकार को पता चली कि मुसलमान बाबरी मस्जिद हिंदुओं के हवाले करने का मन बना चुके हैं तो उनमे घबराहट फैल गयी। इस घबराहट का प्रमाण हम कर्नल मार्टिन कि एक रिपोर्ट मे देख सकते हैं जो जो सुल्तानपुर गजेटियर के पृष्ठ 36 पर छपी थी
“अयोध्या कि बाबरी मस्जिद को मुसलमानो द्वारा हिंदुओं को दिये जाने कि खबर सुनकर हम लोगो मे घबराहट फैल गयी है और यह विश्वास हो गया है कि हिंदुस्तान से अंग्रेज़ अब खतम हो जाएंगे । लेकिन अच्छा हुआ कि गदर का पासा पलट गया और आमिर अली तथा बलवाई बाबा राम चरण दास को फांसी पर लटका दिया गया जिससे फैजाबाद के बलवाइयों कि कमर टूट गयी और पूरे फैजाबाद जिले पर हमारा रोब जम गया क्यूकी गोंडा के राजा देवीबख्श सिंह पहले ही फरार हो चुके थे ॥
मुसलमानो द्वारा आमिर अली के रूप मे किया गया जमभूमि के उद्धार हेतु यह सतप्रयत्न अंग्रेज़ो कि कुटिल चल और दमनचक्र के कारण विफल हो गया ।
18 मार्च सन 1858 को कुबेर टीला स्थित एक इमली के पेड़ मे बाबा राम चरण दास और आमिर अली दोनों को एक साथ अंग्रेज़ो ने फांसी पर लटका दिया । मुसलमानो ने हिंदुओं पर चाहे कितने भी जुल्म किए हो मगर हिन्दू जनता मुसलमानो के इस एकमात्र प्रयास को भूली नहीं और बहुत डीनो तक आमिर अली और  बाबा राम चरण दास कि याद मे उस इमली के पेड़ पर पुजा अर्चना और अक्षत चढ़ाती रही। जब अंग्रेज़ो ने ये देखा कि ये पेड़ देशभक्तों एवं रामभक्तों के लिए एक स्मारक के रूप मे विकसित हो रहा है तब उन्होने इस पेड़ को कटवा कर इस आखिरी निशानी को भी मिटा दिया...
इस प्रकार अंग्रेज़ो की कुटिल नीति के कारण मुसलमानो का हिंदुओं को बाबरी ढांचा सौपने का यह एकमात्र प्रयास विफल हो गया ...
इसके बाद अङ्ग्रेज़ी राज मे कुछ छिटपुट घटनाएँ एवं प्रतिरोध होते रहे। आजादी के बाद के घटनाक्रम का वर्णन करने से पूर्व सर्वप्रथम कुछ अन्य घटनाओं और स्थलों का वर्णन करना प्रासंगिक है
,जिससे बाबरी ढांचे मे प्राचीन मंदिर के चिन्ह दर्शनीय होते हैं ।
इन सारे चिन्हों के बारे मे विस्तृत  विवरण मै अपनी अगली पोस्ट मे दूंगा...


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पं सोनू तिवारी जी

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