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★★श्री राधा रानी कृपा-कटाक्ष समूह में आप भक्तो आपका स्वागत ...... सभी देश वासिओ को होली की बहुत बहुत शुभकामनाए


भक्त और भगवन की कहानी ( Bhagat or Bhagwan Ki kahani )

                                          

 05.विट्ठल भगवान के बहुत बड़े भगत   नामदेव

श्री नामदेव जी महाराष्ट्र के एक सुप्रसिद्ध संत

थे। वे विट्ठल भगवान के बहुत बड़े भगत हुए हैं।
उनका ध्यान सदा विट्ठल भगवान के दर्शन, भजन
और कीर्तन में ही लगा रहता था। सांसारिक
कार्यों में उनका जरा भी मन नहीं लगता था।
वे एकादशी व्रत के प्रति पूर्ण निष्ठावान थे। वे
उस दिन जल भी नहीं पीते थे। एकादशी की सम्पूर्ण
रात्रि को हरिनाम संकीर्तन करते थे।
एकादशी को वे न अन्न खाते और न
किसी को खिलाते। एक दिन
एकादशी की रात्रि को वे हरिनाम संकीर्तन कर
रहे थे। उनके साथ अनेकानेक भक्त भी संकीर्तन कर रहे
थे।
अचानक एक क्षीणकाय, हड्डियों का ढाचा मात्र
एक वृद्ध ब्राह्मण उनके द्वार पर आया और बोला,‘मैं
अत्यन्त भूखा हूं। मुझे भोजन कराओ अन्यथा मैं भूख के
मारे मर जाऊंगा।’
श्री नामदेव जी बोले,‘मैं एकादशी को न अन्न
खाता हूं और न अन्न किसी और को खिलाता हं।
अतः ब्राह्मण देवता प्रातः काल सूर्योदय
का इंतजार करो। व्रत का पारण कर आपको भर पेट
भोजन कराऊंगा।’
ब्राह्मण बोला,‘मुझे तो अभी ही भोजन चाहिए। मैं
एक सौ बीस वर्ष का बूढ़ा हूं। एकादशी व्रत आठ
वर्ष से लेकर अस्सी वर्ष तक के लोगों के लिए है। मैं
भूख से मर जाऊंगा और तुमको ब्रह्म हत्या का पाप
लगेगा।’
श्री नाम देव जी ने कहा,‘ब्राह्मण देवता चाहे कुछ
भी हो जाए मैं आपको भोजन नहीं करा सकता।
कृपया आप सुबह तक प्रतिक्षा करें।’
श्री नाम देव जी के ऐसे व्यवहार के प्रति अन्य
ग्राम-वासियों ने नाम देव जी को निष्ठुर कहा और
ब्राह्मण को भोजन देना चाहा परन्तु ब्राह्मण ने
भोजन लेने से इंकार कर दिया और कहा,‘यदि मैं
भोजन ग्रहण करूंगा तो सिर्फ और सिर्फ नामदेव से
ही करूंगा।’
श्री नाम देव जी ने जब ब्राह्मण को भोजन न
दिया तो कुछ ही समय में उसके प्राण पखेरू उड़ गए।
वहां उपस्थित सभी लोग श्री नामदेव जी के
प्रति अपशब्द कहने लगे और उन्हें हत्यारा कह कर
संबोधित करने लगे।
श्री नाम देव जी कुछ न बोले पूर्ववत विट्ठल
भगवान के भजन और कीर्तन में ही लगे रहे तथा एक
पल के लिए उठे और मृतक शरीर को ढक कर रख
दिया व मृत देह के समक्ष नाम संकीर्तन करते रहे।
प्रातःकाल श्री नाम देव जी ने व्रत पारण
किया और एक चिता बनवाई। स्वयं उस ब्राह्मण के
पार्थिव शरीर को अपनी गोद में लेकर चिता पर
बैठ गए।
चिता को प्रज्वलित किया गया। जब आग की लपटें
श्री नामदेव जी तक पहुंचने
ही वाली थी तो अचानक वह ब्राह्मण उठा और
श्री नाम देवजी को उठाकर चिता से बाहर कूद
पड़ा जब तक नामदेव जी कुछ समझ पाते वह
बूढ़ा अंतर्धान हो गया।
स्वयं विट्ठल भगवान ही उनकी परीक्षा लेने आए थे।
इस घटना को देख कर सब आश्चर्यचकित हो गए और
श्री नाम देव जी की जय-जयकार करने लगे। धन्य हैं
श्री नामदेव जी।
चित में प्रज्ञा का प्रकाश, ज्ञान का दीपक जले
तभी ठाकुर जी का निराकार स्वरूप दिखाई
देता है। भागवत श्रवण से चित रूपी दीपक जलाने
का प्रयास मानव को करना चाहिए। मानव
को अज्ञानता से लडऩा चाहिए मगर आलोचना और
अज्ञानता पर चर्चा करके अपना समय बर्बाद
नहीं करना चाहिए।



4  देवर्षि नारद

एक बार देवर्षि नारद के मन में आया कि भगवान् के पास बहुत महल आदि है है , एक- आध हमको भी दे दें तो यहीं आराम से टिक जायें , नहीं तो इधर - उधर घूमते रहना पड़ता है ।
भगवान् के द्वारिका में बहुत महल थे ।
नारद जी ने भगवान् से कहा - " भगवन ! " आपके बहुत महल हैं , एक हमको दो तो हम भी आराम से रहें ।
आपके यहाँ खाने - पीने का इंतजाम अच्छा ही है ।

भगवान् ने सोचा कि यह मेरा भक्त है , विरक्त संन्यासी है।
अगर यह कहीं राजसी ठाठ में रहने लगा तो थोड़े दिन में ही इसकी सारी विरक्ति भक्ति निकल जायेगी ।
हम अगर सीधा ना करेंगे तो यह बुरा मान जायेगा , लड़ाई झगड़ा करेगा कि इतने महल हैं और एकमहल नहीं दे रहे हैं ।

भगवान् ने चतुराई से काम लिया , नारद से कहा " जाकर देख ले , जिस मकान में जगह खाली मिले वही तेरे नाम कर देंगे ।"

नारद जी वहाँ चले ।
भगवान् की तो १६१०८रानियाँ और प्रत्येक के११- ११बच्चे भी थे ।
यह द्वापर युग की बात है ।
सब जगह नारद जी घूम आये लेकिन कहीं एक कमरा भी खाली नहीं मिला , सब भरे हुए थे ।
आकर भगवान् से कहा " वहाँ कोई जगह खाली नहीं मिली ।"

भगवान् ने कहा फिर क्या करूँ , होता तो तेरे को दे देता। "

नारद जी के मन में आया कि यह तो भगवान् ने मेरे साथ धोखाधड़ी की है , नहीं तो कुछ न कुछ करके, किसी को इधर उधर शिफ्ट कराकर , खिसकाकर एक कमरा तो दे ही सकते थे ।
इन्होंने मेरे साथ धोखा किया है तो अब मैं भी इन्हे मजा चखाकर छोडूँगा ।

नारद जी रुक्मिणी जी के पास पहुँचे , रुक्मिणी जी ने नारद जी की आवभगत की , बड़े प्रेम से रखा ।
उन दिनों भगवान् सत्यभामा जी के यहाँ रहते थे ।

एक आध दिन बीता तो नारद जी ने उनको दान की कथा सुनाई , सुनाने वाले स्वयं नारद जी।
दान का महत्त्व सुनाने लगे कि जिस चीज़ का दान करोगे वही चीज़ आगे तुम्हारे को मिलती है।

जब नारद जी ने देखा कि यह बात रुक्मिणी जी को जम गई है तो उनसे पूछा " आपको सबसे ज्यादा प्यार किससे है?

रुक्मिणी जी ने कहा " यह भी कोई पूछने की बात है , भगवान् हरि से ही मेरा प्यार है ।"

कहने लगे " फिर आपकी यही इच्छा होगी कि अगले जन्म में तुम्हें वे ही मिलें ।"

रुक्मिणी जी बोली " इच्छा तो यही है ।"

नारद जी ने कहा " इच्छा है तो फिर दान करदो, नहीं तो नहीं मिलेँगे ।
आपकी सौतें भी बहुत है और उनमें से किसी ने पहले दान कर दिया उन्हें मिल जायेंगे।
इसलिये दूसरे करें इसके पहले आप ही करदे ।

रुक्मिणी जी को बा
त जँच गई कि जन्म जन्म में भगवान् मिले तो दान कर देना चाहियें।

रुक्मिणी से नारद जी ने संकल्प करा लिया ।
अब क्या था , नारद जी का काम बन गया ।
वहाँ से सीधे सत्यभामा जी के महल में पहुँच गये और भगवान् से कहा कि " उठाओ कमण्डलु , और चलो मेरे साथ ।"

भगवान् ने कहा " कहाँ चलना है , बात क्या हुई ? "

नारद जी ने कहा " बात कुछ नहीं , आपको मैंने दान में ले लिया है ।
आपने एक कोठरी भी नहीं दी तो मैं अब आपको भी बाबा बनाकर पेड़ के नीचे सुलाउँगा ।"
सारी बात कह सुनाई ।

भगवान् ने कहा " रुक्मिणी ने दान कर दिया है तो ठीक है ।
वह पटरानी है , उससे मिल तो आयें ।"

भगवान् ने अपने सारे गहने गाँठे , रेशम के कपड़े सब खोलकर सत्यभामा जी को दे दिये और बल्कल वस्त्र पहनकर, भस्मी लगाकर और कमण्डलु लेकर वहाँ से चल दिये ।

उन्हें देखते ही रुक्मिणी के होश उड़ गये । पूछा " हुआ क्या ? "

भगवान् ने कहा " पता नहीं , नारद कहता है कि तूने मेरे को दान में दे दिया । "

रुक्मिणी ने कहा " लेकिन वे कपड़े , गहने कहाँ गये, उत्तम केसर को छोड़कर यह भस्मी क्यों लगा ली ? "

भगवान् ने कहा " जब दान दे दिया तो अब मैं उसका हो गया।
इसलिये अब वे ठाठबाट नहीं चलेंगे ।
अब तो अपने भी बाबा जी होकर जा रहे हैं ।"

रुक्मिणी ने कहा " मैंने इसलिये थोड़े ही दिया था कि ये ले जायें।"

भगवान् ने कहा " और काहे के लिये दिया जाता है ?
इसीलिये दिया जाता है कि जिसको दो वह ले जाये ।"

अब रुक्मिणी को होश आया कि यह तो गड़बड़ मामला हो गया।
रुक्मिणी ने कहा " नारद जी यह आपने मेरे से पहले नहीं कहा , अगले जन्म में तो मिलेंगे सो मिलेंगे , अब तो हाथ से ही खो रहे हैं । "

नारद जी ने कहा " अब तो जो हो गया सो हो गया , अब मैं ले जाऊँगा ।"

रुक्मिणी जी बहुत रोने लगी।
तब तक हल्ला गुल्ला मचा तो और सब रानियाँ भी वहा इकठ्ठी हो गई ।
सत्यभामा , जाम्बवती सब समझदार थीं ।
उन्होंने कहा " भगवान् एक रुक्मिणी के पति थोड़े ही हैं, इसलिये रुक्मिणी को सर्वथा दान करने का अधिकार नहीं हो सकता , हम लोगों का भी अधिकार है ।"

नारद जी ने सोचा यह तो घपला हो गया ।

कहने लगे " क्या भगवान् के टुकड़े कराओगे ?
तब तो 16108 हिस्से होंगे ।"

रानियों ने कहा " नारद जी कुछ ढंग की बात करो । "

नारद जी ने विचार किया कि अपने को तो महल ही चाहिये था और यही यह दे नहीं रहे थे , अब मौका ठीक है , समझौते पर बात आ रही है ।

नारद जी ने कहा भगवान् का जितना वजन ह
ै , उतने का तुला दान कर देने से भी दान मान लिया जाता है ।
तुलादान से देह का दान माना जाता है ।
इसलिये भगवान् के वजन का सोना , हीरा , पन्ना दे दो ।"

इस पर सब रानियाँ राजी हो गई।

बाकी तो सब राजी हो गये लेकिन भगवान् ने सोचा कि यह फिर मोह में पड़ रहा है ।
इसका महल का शौक नहीं गया।
भगवान् ने कहा " तुलादान कर देना चाहिये , यह बात तो ठीक हे ।"
भगवान् तराजु के एक पलड़े के अन्दर बैठ गये ।
दूसरे पलड़े में सारे गहने , हीरे , पन्ने रखे जाने लगे ।
लेकिन जो ब्रह्माण्ड को पेट में लेकर बैठा हो , उसे द्वारिका के धन से कहाँ पूरा होना है ।

सारा का सारा धन दूसरे पलड़े पर रख दिया लेकिन जिस पलड़े पर भगवान बैठे थे वह वैसा का वैसा नीचे लगा रहा , ऊपर नहीं हुआ ।

नारद जी ने कहा " देख लो , तुला तो बराबर हो नहीं रहा है , अब मैं भगवान् को ले जाऊँगा ।"
सब कहने लगे " अरे कोई उपाय बताओ ।"

नारद जी ने कहा " और कोई उपाय नहीं है ।"
अन्य सब लोगों ने भी अपने अपने हीरे पन्ने लाकर डाल दिये लेकिन उनसे क्या होना था ।
वे तो त्रिलोकी का भार लेकर बैठे थे ।

नारद जी ने सोचा अपने को अच्छा चेला मिल गया , बढ़िया काम हो गया ।
उधरऔरते सब चीख रही थी।
नारद जी प्रसन्नता के मारे इधर ऊधर टहलने लगे ।

भगवान् ने धीरे से रुक्मिणी को बुलाया ।
रुक्मिणी ने कहा " कुछ तो ढंग निकालिये , आप इतना भार लेकर बैठ गये , हम लोगों का क्या हाल होगा ? "

भगवान् ने कहा " ये सब हीरे पन्ने निकाल लो , नहीं तो बाबा जी मान नहीं रहे हैं ।
यह सब निकालकर तुलसी का एक पत्ता और सोने का एक छोटा सा टुकड़ा रख दो तो तुम लोगों का काम हो जायगा ।"

रुक्मिणी ने सबसे कहा कि यह नहीं हो रहा है तो सब सामान हटाओ ।
सारा सामान हटा दिया गया और एक छोटे से सोने के पतरे पर तुलसी का पता रखा गया तो भगवान् के वजन के बराबर हो गया ।

सबने नारद जी से कहा ले जाओ " तूला दान ।"

नारद जी ने खुब हिलाडुलाकर देखा कि कहीं कोई डण्डी तो नहीं मार रहा है ।
नारद जी ने कहा इन्होंने फिर धोखा दिया ।
फिर जहाँ के तहाँ यह लेकर क्या करूँगा ?
उन्होंने कहा " भगवन् ।यह आप अच्छा नहीं कर रहे हैं , केवल घरवालियों की बात सुनते हैं , मेरी तरफ देखो ।"

भगवान् ने कहा " तेरी तरफ क्या देखूँ ?
तू सारे संसार के स्वरूप को समझ कर फिर मोह के रास्ते जाना चाह रहा है तो तेरी क्या बात सुनूँ।"

तब नारद जी ने समझ लिया कि भगवान् ने जो किया सो ठीक किया ।
नारद जी ने कहा "
एक बात मेरी मान लो ।
आपने मेरे को तरह तरह के नाच अनादि काल से नचाये और मैंने तरह तरह के खेल आपको दिखाये।

कभी मनुष्य , कभी गाय इत्यादि पशु , कभी इन्द्र , वरुण आदि संसार में कोई ऐसा स्वरूप नहीं जो चौरासी के चक्कर में किसी न किसी समय में हर प्राणी ने नहीं भोग लिया ।
अनादि काल से यह चक्कर चल रहा है , सब तरह से आपको खेल दिखाया ।
आप मेरे को ले जाते रहे और मैं खेल करता रहा ।
अगर आपको मेरा कोई खेल पसंद आगया हो तो आप राजा की जगह पर हैं और मैं ब्राह्मण हूँ तो मेरे को कुछ इनाम देना चाहिये ।
वह इनाम यही चाहता हूँ कि मेरे शोक मोह की भावना निवृत्त होकर मैं आपके परम धाम में पहुँच जाऊँ ।
और यदि कहो कि " तूने जितने खेल किये सब बेकार है " , तो भी आप राजा हैं ।
जब कोई बार बार खराब खेल करता है तो राजा हुक्म देता है कि " इसे निकाल दो ।"
इसी प्रकार यदि मेरा खेल आपको पसन्द नहीं आया है तो फिर आप कहो कि इसको कभी संसार की नृत्यशाला में नहीं लाना है । तो भी मेरी मुक्ति है ।"

भगवान् बड़े प्रसन्न होकर तराजू से उठे और नारद जी को छाती से लगाया और कहा " तेरी मुक्ति तो निश्चित है ।


3 निष्काम भक्ति 

 एक भक्त था, वह रोज बिहारी जी के मंदिर जाता था। पर मंदिर में बिहारी जी की जगह उसे एक ज्योति दिखाई देती थी, मंदिर में बाकी के सभी भक्त कहते- वाह ! आज बिहारी जी का श्रंगार कितना अच्छा है,, बिहारी जी का मुकुट ऐसा,, उनकी पोशाक ऐसी,, तो वह भक्त सोचता... बिहारी जी सबको दर्शन देते है, पर मुझे क्यों केवल एक ज्योति दिखायी देती है । हर दिन ऐसा होता । एक दिन बिहारी जी से बोला ऐसी क्या बात है की आप सबको तो दर्शन देते है पर मुझे दिखायी नहीं देते । कल आप को मुझे दर्शन देना ही पड़ेगा.अगले दिन मंदिर गया फिर बिहारी जी उसे जोत के रूप में दिखे । वह बोला बिहारी जी अगर कल मुझे आपने दर्शन नहीं दिये तो में यमुना जी में डूबकर मर जाँऊगा ।

♻ उसी रात में बिहारी जी एक कोड़ी के सपने में आये जो कि मंदिर के रास्ते में बैठा रहता था, और बोले तुम्हे अपना कोड़ ठीक करना है वह कोड़ी बोला - हाँ भगवान, भगवान बोले - तो सुबह मंदिर के रास्ते से एक भक्त निकलेगा तुम उसके चरण पकड़ लेना औरतब तक मत छोड़ना जब तक वह ये न कह दे कि बिहारी जी तुम्हारा कोड़ ठीक करे .अगले दिन वह कोड़ी रास्ते में बैठ गया जैसे ही वह भक्त निकला उसने चरण पकड़ लिए और बोला पहले आप कहो कि मेरा कोड़ ठीक हो जाये ।

♻ वह भक्त बोला मेरे कहने से क्या होगा आप मेरे पैर छोड दीजिये ,कोड़ी बोला जब तक आप ये नहीं कह देते की बिहारी जी तुम्हारा कोड़ ठीक करे तक मैं आपके चरण नहीं छोडूगा. भक्त वैसे ही चिंता में था,कि बिहारी जी दर्शन नहीं दे रहे,ऊपर से ये कोड़ी पीछे पड़ गया तो वह झुँझलाकर बोला जाओ बिहारी जी तुम्हारा कोड ठीक करे और मंदिर चला गया,मंदिर जाकर क्या देखता है बिहारीजी के दर्शन हो रहे है,बिहारेजी से पूछँने लगा अब तक आप मुझे दर्शन क्यों नहीं दे रहे थे,तो बिहारीजी बोले तुम मेरे निष्काम भक्त हो आज तक तुमने मुझसे कभी कुछ नहीं माँगा इसलिए में क्या मुँह लेकर तुम्हे दर्शन देता यहाँ सभी भक्त कुछ न कुछ माँगते रहते है इसलिए में उनसे नज़रे मिला सकता हूँ ,पर आज तुमने रास्ते में उस कोड़ी से कहा - कि बिहारी जी तुम्हारा कोड़ ठीक कर दे इसलिए में तुम्हे दर्शन देने आ गया ।

♻सार - भगवान की निष्काम भक्ति ही करनी चाहिये,भगवान की भक्ति करके यदि संसार के ही भोग,सुख ही माँगे तो फिर वह भक्ति नहीं वह तो सोदेबाजी है!


 2  जीवन के दुःख बिलकुल नमक की तरह हैं

एक बार एक नवयुवक किसी संत के पास पहुंचा और बोला :

“ महात्मा जी, मैं अपनी ज़िन्दगी से बहुत परेशान हूँ, कृपया इस परेशानी से निकलने का उपाय बताएं...

संत बोले, “पानी के ग्लास में एक मुट्ठी नमक डालो और उसे पीयो ” युवक ने ऐसा ही किया...

“इसका स्वाद कैसा लगा ?”, संत ने पुछा...?

“बहुत ही खराब … एकदम खारा .” – युवक थूकते हुए बोला .

संत मुस्कुराते हुए बोले , “एक बार फिर अपने हाथ में एक मुट्ठी नमक लेलो और मेरे पीछे -पीछे आओ.. “दोनों धीरे -धीरे आगे बढ़ने लगे और थोड़ी दूर जाकर स्वच्छ पानी से बनी एक झील के सामने रुक गए ...

चलो, अब इस नमक को पानी में दाल दो .”, संत ने निर्देश दिया।

युवक ने ऐसा ही किया...

“अब इस झील का पानी पियो .” , संत बोले...

युवक पानी पीने लगा …,

एक बार फिर संत ने पूछा ,: “ बताओ इसका स्वाद कैसा है , क्या अभी भी तुम्हे ये खरा लग रहा है...?”

“नहीं , ये तो मीठा है , बहुत अच्छा है ”, युवक बोला....

संत युवक के बगल में बैठ गए और उसका हाथ थामते हुए बोले , “ जीवन के दुःख बिलकुल नमक की तरह हैं ; न इससे कम ना ज्यादा . जीवन में दुःख की मात्र वही रहती है , बिलकुल वही . लेकिन हम कितने दुःख का स्वाद लेते हैं ये इस पर निर्भर करता है कि हम उसे किस पात्र में डाल रहे हैं . इसलिए जब तुम दुखी हो तो सिर्फ इतना कर सकते हो कि खुद को बड़ा कर लो… ग़्लास मत बने रहो झील बन जाओ .”॥sri sri ||
जन्म लिया है तो सिर्फ साँसे मत लीजिये,
जीने का शौक भी रखिये..


1  संत भी भगवान राम को अपना शिष्य मानते थे 

एक संत थे वे भगवान राम को मानते थे कहते है यदि भगवान से निकट आना है तो उनसे कोई रिश्ता जोड़ लो.जहाँ जीवन में कमी है वही ठाकुर जी को बैठा दो, वे जरुर उस सम्बन्ध को निभायेगे, इसी तरह संत भी भगवान राम को अपना शिष्य मानते थे और शिष्य पुत्र के समान होता है इसलिए माता सीता को पुत्र वधु (बहू)के रूप में देखते थे. उनका नियम था रोज मंदिर जाते और अपनी पहनी माला भगवान को पहनाते थे पर उनकी यह बात मंदिर के लोगो को अच्छी नहीं लगती थी उन्होंने पुजारी से कहा - ये बाबा रोज मंदिर आते है और भगवान को अपनी उतारी हुई माला पहनाते है,कोई तो बाजार से खरीदकर भगवान को पहनाता है और ये अपनी पहनी हुई भगवान को पहनाते है. पुजारी जी को सबने भडकाया कि बाबा की माला आज भगवान को मत पहनाना,अब जैसे ही बाबा मंदिर आये और पुजारी जी को माला उतार कर दी,तो आज पुजारी जी ने माला भगवान को पहनाने से इंकार कर दिया. और कहा यदि आपको माला पहनानी है तो बाजार से नाई माला लेकर आये ये पहनी हुई माला ठाकुर जी को नहीं पह्नायेगे.वे बाजार गए और नई माला लेकर आये, आज संत मन में बड़े उदास थे, अब जैसे ही पुजारी जी ने वह नई माला भगवान श्री राम को पहनाई तुरंत वह माला टूट कर नीचे गिर गई ,उन्होंने फिर जोड़कर पहनाई, फिर टूटकर गिर पड़ी, ऐसा तीन-चार बार किया पर भगवान ने वह माला स्वीकार नहीं की. तब पुजारी जी समझ गए कि मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया है.और पुजारी जी ने बाबा से क्षमा माँगी. संत सीता जी को बहू मानते थे इसलिए जब भी मंदिर जाते पुजारी जी सीता जी के विग्रह के आगे पर्दा कर देते थे, भाव ये होता था कि बहू ससुर के सामने सीधे कैसे आये, और बाबा केवल राम जी का ही दर्शन करते थे जब भी बाबा मंदिर आते तो बाहर से ही आवाज लगाते पुजारी जी हम आ गए और पुजारी जी झट से सीता जी के आगे पर्दा कर देते.एक दिन बाबा ने बाहर से आवाज लगायी पुजारी जी हम आ गए, उस समय पुजारी जी किसी दूसरे काम में लगे हुए थे, उन्होंने सुना नहीं, तब सीता जी ने तुरत अपने विग्रह से बाहर आई और अपने आगे पर्दा कर दिया.जब बाबा मंदिर में आये, और पुजारी ने उन्हें देखा तो बड़ा आश्चर्य हुआ और सीता जी के विग्रह की ओर देखा तो पर्दा लगा है. पुजारी बोले - बाबा! आज आपने आवाज तो लगायी ही नहीं ? बाबा बोले - पुजारी जी! मै तो रोज की तरह आवाज लगाने के बाद ही मंदिर में आया.तब बाबा समझ गए कि सीता जी ने स्वयं कि आसन छोड़कर आई और उन्हें मेरे लिए इतना कष्ट उठना पड़ा.आज से हम मंदिर में प्रवेश ही नही करेंगे.अब बाबा रोज मंदिर के सामने से निकलते और बाहर से ही आवाज लगाते अरे चेला राम तुम्हे आशीर्वाद है सुखी रहो और चले जाते.सच है भक्त का भाव ठाकुर जी रखते है और उसे निभाते भी है. चलो मन वृन्दावन की ओर प्रेम का रस जहाँ छलके है, 
कृष्णा नाम से भोर.... भक्ति की रीत जहाँ पल पल है, प्रेम प्रीति की डोर..... राधे राधे!! जपते जपते , दिख जाए चितचोर ..... चलो मन वृन्दावन की ओर !!!


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सोनू  तिवारी  जी
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