12 ज्योतिर्लिंग कहानी और दर्शन
त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग कथा
त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिग के संबन्ध में एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है. कथा के अनुसार गौतम ऋषि ने यहां पर तप किया था. स्वयं पर लगे गौहत्या के पाप से मुक्त होने के लिए गौतम ऋषि ने यहां कठोर तपस्या की थी. और भगवान शिव से गंगा नदी को धरती पर लाने के लिए वर मांगा था. गंगा नदी के स्थान पर यहां दक्षिण दिशा की गंगा कही जाने वाली नदी गोदावरी का यहां उसी समय उद्गम हुआ था
नागेश्वर ज्योतिर्लिग कथा
नागेश्वर ज्योतिर्लिग के संम्बन्ध में एक कथा प्रसिद्ध है. कथा के अनुसार
एक धर्म कर्म में विश्वास करने वाला व्यापारी था. भगवान शिव में उसकी अनन्य
भक्ति थी. व्यापारिक कार्यो में व्यस्त रहने के बाद भी वह जो समय बचता उसे
आराधना, पूजन और ध्यान में लगाता था. उसकी इस भक्ति से एक दारुक नाम का
राक्षस नाराज हो गया. राक्षस प्रवृ्ति का होने के कारण उसे भगवान शिव जरा
भी अच्छे नहीं लगते थे.
वह राक्षस सदा ही ऎसे अवसर की तलाश में रहता था, कि वह किस तरह व्यापारी की
भक्ति में बाधा पहुंचा सकें. एक बार वह व्यापारी नौका से कहीं व्यापारिक
कार्य से जा रहा था. उस राक्षस ने यह देख लिया, और उसने अवसर पाकर नौका पर
आक्रमण कर दिया. और नौका के यात्रियों को राजधानी में ले जाकर कैद कर
लिया. कैद में भी व्यापारी नित्यक्रम से भगवान शिव की पूजा में लगा रहता
था.
बंदी गृ्ह में भी व्यापारी के शिव पूजन का समाचार जब उस राक्षस तक पहुंचा
तो उसे बहुत बुरा लगा. वह क्रोध भाव में व्यापारी के पास कारागार में
पहुंचा. व्यापारी उस समय पूजा और ध्यान में मग्न था. राक्षस ने उसपर उसी
मुद्रा में क्रोध करना प्रारम्भ कर दिया. राक्षस के क्रोध का कोई प्रभाव जब
व्यापारी पर नहीं हुआ तो राक्षस ने अपने अनुचरों से कहा कि वे व्यापारी को
मार डालें.
यह आदेश भी व्यापारी को विचलित न कर सकें. इस पर भी व्यापारी अपनी और अपने
साथियों की मुक्ति के लिए भगवान शिव से प्रार्थना करने लगा. उसकी भक्ति से
प्रसन्न होकर भगवान शिव उसी कारागार में एक ज्योतिर्लिंग रुप में प्रकट
हुए. और व्यापारी को पाशुपत- अस्त्र स्वयं की रक्षा करने के लिए दिया. इस
अस्त्र से राक्षस दारूक तथा उसके अनुचरो का वध कर दिया. उसी समय से भगवान
शिव के इस ज्योतिर्लिंग का नाम नागेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुआ.
सोमनाथ ज्योतिर्लिंग कथा
ज्योतिर्लिंग के प्राद्रुभाव की एक पौराणिक कथा प्रचलित है. कथा के अनुसार
राजा दक्ष ने अपनी सताईस कन्याओं का विवाह चन्द देव से किया था. सत्ताईस
कन्याओं का पति बन कर देव बेहद खुश थे. सभी कन्याएं भी इस विवाह से प्रसन्न
थी. इन सभी कन्याओं में चन्द्र देव सबसे अधिक रोहिंणी नामक कन्या पर मोहित
थे़. जब यह बात दक्ष को मालूम हुई तो उन्होनें चन्द्र देव को समझाया.
लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ. उनके समझाने का प्रभाव यह हुआ कि उनकी आसक्ति
रोहिणी के प्रति और अधिक हो गई.
यह जानने के बाद राजा दक्ष ने देव चन्द्र को शाप दे दिया कि, जाओं आज से
तुम क्षयरोग के मरीज हो जाओ. श्रापवश देव चन्द्र् क्षय रोग से पीडित हो गए.
उनके सम्मान और प्रभाव में भी कमी हो गई. इस शाप से मुक्त होने के लिए वे
भगवान ब्रह्मा की शरण में गए.
इस शाप से मुक्ति का ब्रह्मा देव ने यह उपाय बताया कि जिस जगह पर आप सोमनाथ
मंदिर है, उस स्थान पर आकर चन्द देव को भगवान शिव का तप करने के लिए कहा.
भगवान ब्रह्मा जी के कहे अनुसार भगवान शिव की उपासना करने के बाद चन्द्र
देव श्राप से मुक्त हो गए.
उसी समय से यह मान्यता है, कि भगवान चन्द इस स्थान पर शिव तपस्या करने के
लिए आये थे. तपस्या पूरी होने के बाद भगवान शिव ने चन्द्र देव से वर
मांगने के लिए कहा. इस पर चन्द्र देव ने वर मांगा कि हे भगवान आप मुझे इस
श्राप से मुक्त कर दीजिए. और मेरे सारे अपराध क्षमा कर दीजिए.
इस श्राप को पूरी से समाप्त करना भगवान शिव के लिए भी सम्भव नहीं था. मध्य
का मार्ग निकाला गया, कि एक माह में जो पक्ष होते है. एक शुक्ल पक्ष और
कृ्ष्ण पक्ष एक पक्ष में उनका यह श्राप नहीं रहेगा. परन्तु इस पक्ष में इस
श्राप से ग्रस्त रहेगें. शुक्ल पक्ष और कृ्ष्ण पक्ष में वे एक पक्ष में
बढते है, और दूसरे में वो घटते जाते है. चन्द्र देव ने भगवान शिव की यह
कृ्पा प्राप्त करने के लिए उन्हें धन्यवाद किया. ओर उनकी स्तुति की.
श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिग स्थापना कथा
कथा के अनुसार भगवान शंकर के दोनों पुत्रों में आपस में इस बात पर विवाद
उत्पन्न हो गया कि पहले किसका विवाह होगा. जब श्री गणेश और श्री कार्तिकेय
जब विवाद में किसी हल पर नहीं पहुंच पायें तो दोनों अपना- अपना मत लेकर
भगवान शंकर और माता पार्वती के पास गए. अपने दोनों पुत्रों को इस प्रकार
लडता देख, पहले माता-पिता ने दोनों को समझाने की कोशिश की.
परन्तु जब वे किसी भी प्रकार से गणेश और कार्तिकेयन को समझाने में सफल नहीं
हुए, तो उन्होने दोनों के समान एक शर्त रखी. दोनों से कहा कि आप दोनों में
से जो भी पृ्थ्वी का पूरा चक्कर सबसे पहले लगाने में सफल रहेगा. उसी का
सबसे पहले विवाह कर दिया जायेगा.
विवाह की यह शर्त सुनकर दोनों को बहुत प्रसन्नता हुई. कार्तिकेयन का वाहन
क्योकि मयूर है, इसलिए वे तो शीघ्र ही अपने वाहन पर सवार होकर इस कार्य को
पूरा करने के लिए चल दिए. परन्तु समस्या श्री गणेश के सामने आईं, उनका
वाहन मूषक है., और मूषक मन्द गति जीव है. अपने वाहन की गति का विचार आते ही
श्री गणेश समझ गये कि वे इस प्रतियोगिता में इस वाहन से नहीं जीत सकते.
श्री गणेश है. चतुर बुद्धि, तभी तो उन्हें बुद्धि का देव स्थान प्राप्त है,
बस उन्होने क्या किया, उन्होनें प्रतियोगिता जीतने का एक मध्य मार्ग
निकाला और, शास्त्रों का अनुशरण करते हुए, अपने माता-पिता की प्रदक्षिणा
करनी प्रारम्भ कर दी. शास्त्रों के अनुसार माता-पिता भी पृ्थ्वी के समान
होते है. माता-पिता उनकी बुद्धि की चतुरता को समझ गये़. और उन्होने भी श्री
गणेश को कामना पूरी होने का आशिर्वाद दे दिया.
शर्त के अनुसार श्री गणेश का विवाह सिद्धि और रिद्धि दोनों कन्याओं से कर
दिया गया. पृ्थ्वी की प्रदक्षिणा कर जब कार्तिकेयन वापस लौटे तो उन्होने
देखा कि श्री गणेश का विवाह तो हो चुका है. और वे शर्त हार गये है. श्री
गणेश की बुद्धिमानी से कार्तिकेयन नाराज होकर श्री शैल पर्वत पर चले गये़
श्री शैल पर माता पार्वती पुत्र कार्तिकेयन को समझाने के लिए गई. और भगवान
शंकर भी यहां ज्योतिर्लिंग के रुप में अपनी पुत्र से आग्रह करने के लिए
पहुंच गयें. उसी समय से श्री शैल पर्वत पर मल्लिकार्जुन ज्योर्तिलिंग की
स्थापना हुई, और इस पर्वत पर शिव का पूजन करना पुन्यकारी हो गया.
श्री मल्लिकार्जुन मंदिर निर्माण कथा
इस पौराणिक कथा के अलावा भी श्री मल्लिकार्जुन ज्योर्तिलिंग के संबन्ध में
एक किवदंती भी प्रसिद्ध है. किवदंती के अनुसार एक समय की बात है, श्री शैल
पर्वत के निकट एक राजा था. जिसकानाम चन्द्रगुप्त था. उस राजा की एक कन्या
थी. वह कन्या अपनी किसी मनोकामना की पूर्ति हेतू महलों को छोडकर श्री
शैलपर्वत पर स्थित एक आश्रम में रह रही थी. उस कन्या के पास एक सुन्दर गाय
थी. प्रतिरात्री जब कन्या सो जाती थी. तो उसकी गाय का दूध को दुह कर ले
जाता था.
एक रात्रि कन्या सोई नहीं और जागकर चोर को पकडने का प्रयास करने लगी.
रात्रि हुई चोर आया, कन्या चोर को पकडने के लिए उसके पीछे भागी परन्तु कुछ
दूरी पर जाने पर उसेकेवल वहा शिवलिंग ही मिला. कन्या ने उसी समय उस शिवलिंग
पर श्री मल्लिकार्जुन मंदिर का निर्माण कार्य कराया.
प्रत्येक वर्ष यहां शिवरात्रि के अवसर पर एक विशाल मेले का आयोजन किया जाता
है. वही स्थान आज श्री मल्लिका अर्जुन ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध
है. इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने से भक्तों की इच्छा की पूर्ति होती है.
और वह व्यक्ति इस लोक में सभी भोग भोगकर, अन्य लोक में भी श्री विष्णु धाम
में जाता है.
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापना कथा
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना से संबन्धित के प्राचीन कथा प्रसिद्ध
है. कथा के अनुसार एक बार अवंतिका नाम के राज्य में राजा वृ्षभसेन नाम के
राजा राज्य करते थे. राजा वृ्षभसेन भगवान शिव के अन्यय भक्त थे. अपनी दैनिक
दिनचर्या का अधिकतर भाग वे भगवान शिव की भक्ति में लगाते थे.
एक बार पडौसी राजा ने उनके राज्य पर हमला कर दिया. राजा वृ्षभसेन अपने साहस
और पुरुषार्थ से इस युद्ध को जीतने में सफल रहा. इस पर पडौसी राजा ने
युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए अन्य किसी मार्ग का उपयोग करना उचित
समझा. इसके लिए उसने एक असुर की सहायता ली. उस असुर को अदृश्य होने का
वरदान प्राप्त था.
राक्षस ने अपनी अनोखी विद्या का प्रयोग करते हुए अवंतिका राज्य पर अनेक
हमले की. इन हमलों से बचने के लिए राजा वृ्षभसेन ने भगवान शिव की शरण लेनी
उपयुक्त समझी. अपने भक्त की पुकार सुनकर भगवान शिव वहां प्रकट हुए और
उन्होनें स्वयं ही प्रजा की रक्षा की. इस पर राजा वृ्षभसेन ने भगवान शिव से
अंवतिका राज्य में ही रहने का आग्रह किया, जिससे भविष्य में अन्य किसी
आक्रमण से बचा जा सके. राजा की प्रार्थना सुनकर भगवान वहां ज्योतिर्लिंग के
रुप में प्रकट हुए. और उसी समय से उज्जैन में महाकालेश्वर की पूजा की जाती
है.
ओंकारेश्वर ज्योतिलिंग स्थापना कथा
एक बार विन्ध्यपर्वत ने भगवान शिव की कई माहों तक कठिन तपस्या की उनकी इस
तपस्या से प्रसन्न होकर शंकर जी ने उन्हें साक्षात दर्शन दिये. और विन्ध्य
पर्वत से अपनी इच्छा प्रकट करने के लिए कहा. इस अवसर पर अनेक ऋषि और देव भी
उपस्थित थे़. विन्ध्यपर्वत की इच्छा के अनुसार भगवान शिव ने ज्योतिर्लिंग
के दो भाग किए. एक का नाम ओंकारेश्वर रखा तथा दूसरा ममलेश्वर
रखा. ओंकारेश्वर में ज्योतिर्लिंग के दो रुपों की पूजा की जाती है.
ओंकारेश्वार ज्योतिर्लिंग से संबन्धित अन्य कथा
भगवान के महान भक्त अम्बरीष और मुचुकुन्द के पिता सूर्यवंशी राजा मान्धाता
ने इस स्थान पर कठोर तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया था. उस महान
पुरुष मान्धाता के नाम पर ही इस पर्वत का नाम मान्धाता पर्वत हो गया.
वैद्यनाथ धाम की पौराणिक कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार यह ज्योर्तिलिंग लंकापति रावण द्वारा यहां लया गया
था. इसकी एक बड़ी ही रोचक कथा है. रावण भगवान शंकर का परम भक्त था. शिव
पुरण के अनुसार एक बार भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए रावण हिमालय पर्वत
पर जाकर शिव लिंग की स्थापना करके कठोर तपस्या करने लगा. कई वर्षों तक तप
करने के बाद भी भगवान शंकर प्रसन्न नहीं हुए तब रावण ने शिव को प्रसन्न
करने के लिए अपने सिर की आहुति देने का निश्चय किया.
विधिवत पूजा करते हुए दशानन रावण एक-एक करके अपने नौ सिरों को काटकर शिव
लिंग पर चढ़ाता गया जब दसवां सिर काटने वाला था तब भगवान शिव वहां प्रकट
हुए और रावण को वरदान मांगने के लिए कहा. रावण को जब इच्छित वरदान मिल गया
तब उसने भगवान शिव से अनुरोध किया कि वह उन्हें अपने साथ लंका ले जाना
चाहता है.
शिव ने रावण से कहा कि वह उसके साथ नहीं जा सकते हैं. वह चाहे तो यह
शिवलिंग ले जा सकता है. भगवान शिव ने रावण को वह शिवलिंग ले जाने दिया
जिसकी पूजा करते हुए उसने नौ सिरों की भेंट चढ़ाई थी. शिवलिंग को ले जाते
समय शिव ने रावण से कहा कि इस ज्योर्तिलिंग को रास्ते में कहीं भी भूमि पर
मत रखना अन्यथा यह वहीं पर स्थापित हो जाएगा.
भगवान विष्णु नहीं चाहते थे कि यह ज्योर्तिलिंग लंका पहुंचे अत: उन्होंने
गंगा से रावण के पेट में समाने का अनुरोध किया. रावण के पेट में जैसे ही
गंगा पहुंची रावण के अंदर मूत्र करने की इच्छा प्रबल हो उठी. वह सोचने लगा
कि शिवलिंग को किसी को सौंपकर लघुशंका करले तभी विष्णु भगवान एक ग्वाले के
भेष में वहां प्रकट हुए. रावण ने उस ग्वाले बालक को देखकर उसे शिवलिंग सौंप
दिया और ज़मीन पर न रखने की हिदायत दी.
रावण जब मूत्र करने लगा तब गंगा के प्रभाव से उसकी मूत्र की इच्छा समाप्त
नहीं हो रही थी ऐसे में रावण को काफी समय लग गया और वह बालक शिव लिंग को
भूमि पर रखकर विलुप्त हो गया. रावण जब लौटकर आया तब लाख प्रयास करने के
बावजूद शिवलिंग वहां से टस से मस नहीं हुआ अंत में रावण को खाली हाथ लंका
लौटना जाना पड़ा. बाद में सभी देवी-देवताओं ने आकर इस ज्योर्तिलिंग की पूजा
की और विधिवत रूप से स्थापित किया.
भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग कथा
भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग का नाम भीमा शंकर किस कारण से पडा इस पर एक पौराणिक
कथा प्रचलित है. कथा महाभारत काल की है. महाभारत का युद्ध पांडवों और
कौरवों के मध्य हुआ था. इस युद्ध ने भारत मे बडे महान वीरों की क्षति हुई
थी. दोनों ही पक्षों से अनेक महावीरों और सैनिकों को युद्ध में अपनी जान
देनी पडी थी.
इस युद्ध में शामिल होने वाले दोनों पक्षों को गुरु द्रोणाचार्य से
प्रशिक्षण प्राप्त हुआ था. कौरवों और पांडवों ने जिस स्थान पर दोनों को
प्रशिक्षण देने का कार्य किया था. वह स्धान है. आज उज्जनक के नाम से जाना
जाता है. यहीं पर आज भगवान महादेव का भीमशंकर विशाल ज्योतिर्लिंग है. कुछ
लोग इस मंदिर को भीमाशंकर ज्योतिर्लिग भी कहते है.
भीमशंकर ज्योतिर्लिंग कथा शिवपुराण अनुसार
भीमशंकर ज्योतिर्लिंग का वर्णन शिवपुराण में मिलता है. शिवपुराण में कहा
गया है, कि पुराने समय में भीम नाम का एक राक्षस था. वह राक्षस कुंभकर्ण का
पुत्र था. परन्तु उसका जन्म ठिक उसके पिता की मृ्त्यु के बाद हुआ था. अपनी
पिता की मृ्त्यु भगवान राम के हाथों होने की घटना की उसे जानकारी नहीं थी.
समय बीतने के साथ जब उसे अपनी माता से इस घटना की जानकारी हुई तो वह श्री
भगवान राम का वध करने के लिए आतुर हो गया.
अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए उसने अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या की.
उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे ब्रह्मा जी ने विजयी होने का वरदान दिया.
वरदान पाने के बाद राक्षस निरंकुश हो गया. उससे मनुष्यों के साथ साथ देवी
देवताओ भी भयभीत रहने लगे.
धीरे-धीरे सभी जगह उसके आंतक की चर्चा होने लगी. युद्ध में उसने देवताओं को भी परास्त करना प्रारम्भ कर दिया.
जहां वह जाता मृ्त्यु का तांडव होने लगता. उसने सभी और पूजा पाठ बन्द करवा
दिए. अत्यन्त परेशान होने के बाद सभी देव भगवान शिव की शरण में गए.भगवान
शिव ने सभी को आश्वासन दिलाया की वे इस का उपाय निकालेगें. भगवान शिव ने
राक्षस को नष्ट कर दिया. भगवान शिव से सभी देवों ने आग्रह किया कि वे इसी
स्थान पर शिवलिंग रुप में विराजित हो़. उनकी इस प्रार्थना को भगवान शिव ने
स्वीकार किया. और वे भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के रुप में आज भी यहां विराजित
है.
रामेश्वरं ज्योतिर्लिंग की कथा
रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग के विषय में पौराणिक कथा है. कि जब भगवान श्री राम
माता सीता को रावण की कैद से छुडाकर अयोध्या जा रहे थे़ उस समय
उन्होने मार्ग में गन्धमदान पर्वत पर रुक कर विश्राम किया
था. विश्राम करने के बाद उन्हें ज्ञात हुआ कि यहां पर ऋषि पुलस्त्य कुल का
नाश करने का पाप लगा हुआ है. इस श्राप से बचने के लिए उन्हें इस स्थान पर
भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग स्थापित कर पूजन करना चाहिए.
यह जानने के बाद भगवान श्रीराम ने हनुमान से अनुरोध किया कि वे कैलाश पर्वत
पर जाकर शिवलिंग लेकर आयें. भगवान राम के आदेश पाकर हनुमान कैलाश पर्वत पर
गए, परन्तु उन्हें वहां भगवान शिव के दर्शन नहीं हो पाए. इस पर उन्होने
भगवान शिव का ध्यानपूर्वक जाप किया. जिसके बाद भगवान शिव ने प्रसन्न होकर
उन्हे दर्शन दिए. और हनुमान जी का उद्देश्य पूरा किया.
इधर हनुमान जी को तप करने और भगवान शिव को प्रसन्न करने के कारण देरी हो
गई. और उधर भगवान राम और देवी सीता शिवलिंग की स्थापना का शुभ मुहूर्त लिए
प्रतिक्षा करते रहें. शुभ मुहूर्त निकल जाने के डर से देवी जानकीने
विधिपूर्वक बालू का ही लिंग बनाकर उसकी स्थापना कर दी.
शिवलिंग की स्थापना होने के कुछ पलों के बाद हनुमान जी शंकर जी से लिंग
लेकर पहुंचे तो उन्हें दुख और आश्चर्य दोनों हुआ. हनुमान जी जिद करने लगे
की उनके द्वारा लाए गये शिवलिंग को ही स्थापित किया जाएं. इसपर भगवान राम
ने कहा की तुम पहले से स्थापित बालू का शिवलिंग पहले हटा दो, इसके बाद
तुम्हारे द्वारा लाये गये शिवलिंग को स्थापित कर दिया जायेगा.
हनुमान जी ने अपने पूरे सामर्थ्य से शिवलिंग को हटाने का प्रयास किया,
परन्तु वे असफल रहें. बालू का शिवलिंग अपने स्थान से हिलने के स्थान पर,
हनुमान जी ही लहूलुहान हो गए़. हनुमान जी की यह स्थिति देख कर माता सीता
रोने लगी. और हनुमान जी को भगवान राम ने समझाया की शिवलिंग को उसके स्थान
से हटाने का जो पाप तुमने किया उसी के कारण उन्हें यह शारीरिक कष्ट झेलना
पडा.
अपनी गलती के लिए हनुमान जी ने भगवान राम से क्षमा मांगी और जिस शिवलिंग को
हनुमान जी कैलाश पर्वत से लेकर आये थे. उसे भी समीप ही स्थापित कर दिया
गया. इस लिंग का नाम भगवान राम ने हनुमदीश्वर रखा. इन दोनो शिवलिंगों की
प्रशंसा भगवान श्री राम ने स्वयं अनेक शास्त्रों के माध्यम से की है.
केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की कथा
केदारनाथ महादेव के विषय में कई कथाएं हैं.
स्कन्द पुराण में लिखा है कि एक बार केदार क्षेत्र के विषय में जब पार्वती
जी ने शिव से पूछा तब भगवान शिव ने उन्हें बताया कि केदार क्षेत्र उन्हें
अत्यंत प्रिय है. वे यहां सदा अपने गणों के साथ निवास करते हैं. इस क्षेत्र
में वे तब से रहते हैं जब उन्होंने सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा का रूप
धारण किया था.
स्कन्द पुराण में इस स्थान की महिमा का एक वर्णन यह भी मिलता है कि एक
बहेलिया था जिस हिरण का मांस खाना अत्यंत प्रिय था. एक बार यह शिकार की
तलाश में केदार क्षेत्र में आया. पूरे दिन भटकने के बाद भी उसे शिकार नहीं
मिला. संध्या के समय नारद मुनि इस क्षेत्र में आये तो दूर से बहेलिया
उन्हें हिरण समझकर उन पर वाण चलाने के लिए तैयार हुआ.
जब तक वह वाण चलाता सूर्य पूरी तरह डूब गया. अंधेरा होने पर उसने देखा कि
एक सर्प मेंढ़क का निगल रहा है. मृत होने के बाद मेढ़क शिव रूप में
परिवर्तित हो गया. इसी प्रकार बहेलिया ने देखा कि एक हिरण को सिंह मार रहा
है. मृत हिरण शिव गणों के साथ शिवलोक जा रहा है. इस अद्भुत दृश्य को देखकर
बहेलिया हैरान था. इसी समय नारद मुनि ब्राह्मण वेष में बहेलिया के समक्ष
उपस्थित हुए.
बहेलिया ने नारद मुनि से इन अद्भुत दृश्यों के विषय में पूछा. नारद मुनि ने
उसे समझाया कि यह अत्यंत पवित्र क्षेत्र है. इस स्थान पर मृत होने पर
पशु-पक्षियों को भी मुक्ति मिल जाती है. इसके बाद बहेलिया को अपने पाप
कर्मों का स्मरण हो आया कि किस प्रकार उसने पशु-पक्षियों की हत्या की है.
बहेलिया ने नारद मुनि से अपनी मुक्ति का उपाय पूछा. नारद मुनि से शिव का
ज्ञान प्राप्त करके बहेलिया केदार क्षेत्र में रहकर शिव उपासना में लीन हो
गया. मृत्यु पश्चात उसे शिव लोक में स्थान प्राप्त हुआ.
केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की कथा
केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की कथा के विषय में शिव पुराण में वर्णित है कि नर
और नारयण नाम के दो भाईयों ने भगवान शिव की पार्थिव मूर्ति बनाकर उनकी पूजा
एवं ध्यान में लगे रहते. इन दोनों भाईयों की भक्तिपूर्ण तपस्या से प्रसन्न
होकर भगवान शिव इनके समक्ष प्रकट हुए. भगवान शिव ने इनसे वरदान मांगने के
लिए कहा तो जन कल्याण कि भावना से इन्होंने शिव से वरदान मांगा कि वह इस
क्षेत्र में जनकल्याण हेतु सदा वर्तमान रहें. इनकी प्रार्थना पर भगवान शंकर
ज्योर्तिलिंग के रूप में केदार क्षेत्र में प्रकट हुए.
केदारनाथ से जुड़ी पाण्डवों की कथा
शिव पुराण में लिखा है कि महाभारत के युद्ध के पश्चात पाण्डवों को इस बात
का प्रायश्चित हो रहा था कि उनके हाथों उनके अपने भाई-बंधुओं की हत्या हुई
है. वे इस पाप से मुक्ति पाना चाहते थे. इसका समाधान जब इन्होंने वेद व्यास
जी से पूछा तो उन्होंने कहा कि बंधुओं की हत्या का पाप तभी मिट सकता है जब
शिव इस पाप से मुक्ति प्रदान करेंगे. शिव पाण्डवों से अप्रसन्न थे अत:
पाण्डव जब विश्वानाथ के दर्शन के लिए काशी पहुंचे तब वे वहां शंकर
प्रत्यक्ष प्रकट नहीं हुए. शिव को ढ़ूढते हुए तब पांचों पाण्डव केदारनाथ
पहुंच गये.
पाण्डवों को आया देखकर शिव ने भैंस का रूप धारण कर लिया और भैस के झुण्ड
में शामिल हो गये . शिव की पहचान करने के लिए भीम एक गुफा के मुख के पास
पैर फैलाकर खड़ा हो गया. सभी भैस उनके पैर के बीच से होकर निकलने लगे लेकिन
भैस बने शिव ने पैर के बीच से जाना स्वीकार नहीं किया इससे पाण्डवों ने
शिव को पहचान लिया.
इसके बाद शिव वहां भूमि में विलीन होने लगे तब भैंस बने भगवान शंकर को भीम
ने पीठ की तरह से पकड़ लिया. भगवान शंकर पाण्डवों की भक्ति एवं दृढ़ निश्चय
को देखकर प्रकट हुए तथा उन्हें पापों से मुक्त कर दिया. इस स्थान पर आज भी
द्रौपदी के साथ पांचों पाण्डवों की पूजा होती है. यहां शिव की पूजा भैस के
पृष्ठ भाग के रूप में तभी से चली आ रही है.
घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग पौराणिक कथा
भारत के दक्षिण प्रदेश के देवगिरि पर्वत के निकट सुकर्मा नामक ब्राह्मण और
उसकी पत्नी सुदेश निवास करते थे. दोनों ही भगवान शिव के परम भक्त थे. परंतु
इनके कोई संतान सन्तान न थी इस कारण यह बहुत दुखी रहते थे जिस कारण उनकी
पत्नि उन्हें दूसरी शादी करने का आग्रह करती थी अत: पत्नि के जोर देने
सुकर्मा ने अपनी पत्नी की बहन घुश्मा के साथ विवाह कर लिया.
घुश्मा भी शिव भगवान की अनन्य भक्त थी और भगवान शिव की कृपा से उसे एक
पुत्र की प्राप्ति हुई. पुत्र प्राप्ति से घुश्मा का मान बढ़ गया परंतु इस
कारण सुदेश को उससे ईष्या होने लगी जब पुत्र बड़ा हो गया तो उसका विवाह कर
दिया गया यह सब देखकर सुदेहा के मन मे और अधिक ईर्षा पैदा हो गई. जिसके
कारण उसने पुत्र का अनिष्ट करने की ठान ली ओर एक दिन रात्रि में जब सब सो
गए तब उसने घुश्मा के पुत्र को चाकू से मारकर उसके शरीर के टुकड़े कर दिए
और उन टुकड़ों को सरोवर में डाल दिया जहाँ पर घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव लिंग
का विसर्जन किया करती थी. शव को तालाब में फेंककर वह आराम से घर में आकर
सो गई.
रोज की भाँति जब सभी लोग अपने कार्यों मे व्यस्त हो गए और नित्यकर्म में लग
गये तब सुदेहा भी आनन्दपूर्वक घर के काम-काज में जुट गई. परंतु जब बहू
नींद से जागी तो बिस्तर को ख़ून में सना पाया तथा मांस के कुछ टुकड़े दिखाई
दिए यह भयानक दृश्य देखकर व्याकुल बहू अपनी सास घुश्मा के पास जाकर रोने
लगी और पति के बारे मे पूछने लगी और विलाप करने लगी. सुदेहा भी उसके साथ
विलाप मे शामिल हो गई ताकी किसी को भी उस पर संदेह न हो बहू के क्रन्दन को
सुनकर घुश्मा जरा भी दुखी नहीं हुई और अपने नित्य पूजन व्रत में लगी रही व
सुधर्मा भी अपने नित्य पूजा-कर्म में लगे रहे. दोनों पति-पत्नि भगवान का
पूजन भक्ति के साथ बिना किसी विघ्न, चिन्ता के करते रहे. जब पूजा समाप्त
हुई तब घुश्मा ने अपने पुत्र की रक्त से भीगी शैय्या को देखा यह विभत्स
दृश्य देखकर भी उसे किसी प्रकार का विलाप नहीं हुआ.
उसने कहा की जिसने मुझे पुत्र दिया है वही शिव उसकी रक्षा भी करेंगे वह तो
स्वयं कालों के भी काल हैं, सत्पुरूषों के आश्रय हैं और वही हमारे संरक्षक
हैं. अत: चिन्ता करने से कुछ न होगा इस प्रकार के विचार कर उसने शिव भगवान
को याद किया धैर्य धारण कर शोक से मुक्त हो गईं. और प्रतिदिन की तरह शिव
मंत्र ऊँ नम: शिवाय का उच्चारण करती रही तथा पार्थिव लिंगों को लेकर सरोवर
के तट पर गई जब उसने पार्थिव लिंगों को तालाब में प्रवाहित किया तो उसका
पुत्र सरोवर के किनारे खड़ा हुआ दिखाई पड़ा अपने पुत्र को देखकर घुश्मा
प्रसन्नता से भर गई इतने में ही भगवान शिव उसके सामने प्रकट हो गये.
भगवान शिव घुश्मा की भक्ति से बहुत प्रसन्न हुए और वरदान मांगने को कहा
भगवाने ने कहा यदि वो चाहे तो वो उसकी बहन को त्रिशूल से मार डालें. परंतु
घुश्मा ने श्रद्धा पूर्वक महेश्वर को प्रणाम करके कहा कि सुदेहा बड़ी बहन
है अत: आप उसकी रक्षा करे उसे क्षमा करें. घुश्मा ने निवेदन किया की मैं
दुष्कर्म नहीं कर सकती और बुरा करने वाले की भी भलाई करना ही अच्छा माना
जाता है. अत: भगवान शिव घुश्मा के भक्तिपूर्ण विचारों को सुनकर अत्यन्त
प्रसन्न हो उठे और कहा घुश्मा तुम कोई और वर मांग सकती हो घुश्मा ने कहा हे
महादेव मुझे वर देना ही चाहते हैं तो लोगों की रक्षा और कल्याण के लिए आप
यहीं सदा निवास करें घुश्मा की प्रार्थना से प्रसन्न महेश्वर शिवजी ने उस
स्थान पर सदैव वास करने का वरदान दिया तथा तालाब के समीप ज्योतर्लिंग के
रूप में वहां पर वास करने लगे और घुश्मेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए उस
तालाब का नाम भी तब से शिवालय हो गया.
ऐसे प्रगट हुए श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग...
श्री मल्लिकार्जुन ज्योर्तिंलिंग ऐसा तीर्थ है, जहां शिव और शक्ति की
आराधना से देव और दानव दोनों को सुफल प्राप्त हुए। पुराणों में इस दिव्य
ज्योर्तिलिंग के प्रागट्य की कथा है।
एक बार शंकर और पार्वती के पुत्र गणेश व कार्तिकेय के बीच पहले शादी करने
के लिए विवाद हो गया। तब शंकर और पार्वती ने कहा दोनों में से जो भी इस
पृथ्वी की परिक्रमा पहले करेगा उसकी शादी पहले होगी। कार्तिकेय पृथ्वी का
चक्कर लगाने निकल पड़े और गणेश ने शिव-पार्वती की परिक्रमा कर ली।
शास्त्रों में माता-पिता की परिक्रमा पृथ्वी के समान बताई गई है। अत: गणेश
का विवाह सिद्धि व बुद्धि नाम की दो कन्याओं से कर दिया गया। इससे
कार्तिकेय नाराज होकर श्री शैलम् पर्वत पर चले गए। कार्तिकेय को खुश करने
के लिए शिव इस पर्वत पर ज्योतिर्लिंङ्ग के रूप में प्रकट हुए। यही
ज्योतिर्लिंङ्ग मल्लिकार्जुन कहलाया। इसी पहाड़ी पर पार्वती भ्रमराम्बा
देवी के रूप में प्रकट हुईं।
रावण का वध करने के बाद राम और सीता ने भी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के
दर्शन किए थे। द्वापर युग में युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव ने
इनकी पूजा-अर्चना की थी। राक्षसों का राजा हिरण्यकश्यप भी इनकी पूजा करता
था। कालांतर में सातवाहन, वाकाटक, काकातिय और विजयनगर के राजा श्रीकृष्णदेव
राय आदि राजाओं ने मंदिर पुनर्निमाण कर इसका वैभव बढ़ाया। बाद के वर्षों
में मराठा शासक शिवाजी द्वारा भी मंदिर के गोपुरम का निर्माण कराया।
धर्मग्रन्थों में यह महिमा बताई गई है कि श्री शैल शिखर के दर्शन मात्र से
मनुष्य सब कष्ट दूर हो जाते हैं और अपार सुख प्राप्त कर जन्म-मरण के चक्र
से मुक्ति मिलती है अर्थात् मोक्ष प्राप्त होता है।
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आचार्य सोनू तिवारी जी
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